टुनटुन

टुनटुन जिनका असली नाम था उमा देवी गायिका बनने की तमन्ना लिए मुंबई नगरी पहुँची थीं। गायिका बनी भी और पहला ही गाना सुपरहिट भी रहा। लेकिन क्या वजह है कि आज उन्हें याद किया जाता है एक हास्य कलाकार के रूप में।

कुछ बेहतर पाने के लिए रिस्क तो लेना पड़ता है तभी तो लोग अपना घर बार पीछे छोड़ कर बिना किसी सहारे, अनजान नगरी में पहुँच जाते हैं एक सुन्दर भविष्य की तलाश में। इतनी हिम्मत जुटाना और फिर कामयाबी भी हासिल करना वो भी बिना किसी फ़िल्मी बैकग्राउंड और प्रोफेशनल ट्रेंनिंग के, और अगर ये काम आज से 70-75 साल पहले एक लड़की ने किया हो तो वाक़ई दाद देनी चाहिए। ये चमत्कार हुआ उमा देवी यानी टुनटुन के साथ जिनमें हास्य का वायरस शायद इन-बिल्ट था, हाँलाकि वो फ़िल्मों में आईं थीं गायिका बनने।

टुनटुन का शुरुआती जीवन

उमा देवी खत्री का जन्म 11 जुलाई 1923 को उत्तरप्रदेश में हुआ जब वो दो ढाई साल की रही होंगी तभी उनके माता-पिता गुज़र गए। उनसे आठ-नौ साल बड़ा एक भाई था, जिसका नाम था हरी और वो लोग दिल्ली के पास अलीपुर में रहते थे। लेकिन वो भाई भी तब चल बसा जब वो 4-5 साल की थीं, तभी से वो रिश्तेदारों के करम के सहारे ज़िंदगी गुज़ार रही थी। बचपन से गाने का शौक़ था मगर गाना गाने की इजाज़त नहीं थी। पढाई लिखाई हुई नहीं थी बस घर के कामों में जुटे रहना पड़ता था। कुछ रिश्तेदार दिल्ली में रहते थे तो वहाँ अक्सर आना-जाना हो जाता था।

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थोड़ी बड़ी हुईं तो पता चला कि उन की जायदाद के चक्कर में उनके माता-पिता और भाई का क़त्ल किया गया था। उन्हीं दिनों उनकी मुलाक़ात दिल्ली के एक एक्ससाइज़ इंस्पेक्टर अख़्तर अब्बास क़ाज़ी से हुई, जिन्होंने उनके अंदर गाने का विश्वास जगाया, उनकी ज़िंदगी में जो थोड़ी बहुत राहत थी वो उन्हीं की वजह से थी।  मगर ये राहत भी उस समय छिन गई जब देश का बँटवारा हुआ और क़ाज़ी साहब लाहौर चले गए। इधर घर के हालात और रिश्तेदारों की मनमानी से तंग आकर 13 साल की उमा देवी चुपचाप घर छोड़कर मुंबई चली गई।

जब वो दिल्ली में थीं तो उनका गाना सुनकर किसी ने उन्हें नितिन बोस के असिस्टेंट का पता दिया था, बस उसी एक पते की आस पर वो मुंबई पहुंची थीं और अच्छी बात ये रही कि वो आस टूटी नहीं, उन्हें आसरा मिल गया था लेकिन काम की तलाश जारी थी। इसी बीच दिल्ली वाले क़ाज़ी साहब जो लाहौर चले गए थे वो भी मुंबई पहुँच गए और फिर उन दोनों ने शादी कर ली। हाँलाकि माना ये जाता है कि उनके पहले मशहूर गाने को सुनकर कोई पाकिस्तान से हिंदुस्तान आया और फिर उन्होंने शादी की। मगर टुनटुन ने अपने इंटरव्यू में इस कन्फ्यूज़न को दूर किया है।

टुनटुन

फ़िल्मी करियर की शुरुआत

एक दिन उमा देवी काम की तलाश में A R कारदार से मिलने उनके ऑफिस पहुँची और बड़ी ही बेबाक़ी से A R कारदार के बारे में उन्हीं से पूछने लगीं। पर A R कारदार को उनकी बेबाक़ी पसंद आई और फिर उन्होंने अपने संगीतकार नौशाद के असिस्टेंट को बुलाकर उनका टेस्ट लेने को कहा। उन्होंने बाक़ायदा गाने की कोई ट्रैंनिंग नहीं ली थी पर जब गाना गाया तो सबको बहुत पसंद आया और उन्हें कारदार प्रोडक्शंस में 500 रुपए महीने की नौकरी मिल गई। 1947 की फ़िल्म “दर्द” के लिए उन्होंने पहला गीत रिकॉर्ड किया जो बहुत ही मशहूर हुआ, वो था –

“अफ़साना लिख रही हूँ दिल – ए – बेक़रार का, आँखों में रंग भर के तेरे इंतज़ार का ” 

इसके बाद उन्होंने “अनोखी अदा”, “चाँदनी रात”, “दुलारी”, “हीर राँझा”, “प्यार की रात”, “सुमित्रा”, “रुपलेखा”, “भगवान श्रीकृष्ण”, “जंगल का जवाहर”, “राजमहल” जैसी फ़िल्मों में लगभग 45 गीत गाए मगर “दर्द” वाली कामयाबी फिर नहीं मिली।

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जिस समय उमा देवी ने बतौर गायिका फ़िल्मों में क़दम रखा था उस समय नूरजहाँ, ज़ोहराबाई अम्बालेवाली, ख़ुर्शीद, राजकुमारी जैसी गायिकाओं के नाम फ़िल्मों में गूंजा करते थे। ऐसे में बिना किसी ट्रेनिंग के गायिका के रूप में अपनी एक मज़बूत जगह बनाना आसान काम नहीं था। फिर परिवार की ज़िम्मेदारी भी बढ़ गई थी, इसलिए उन्हें फ़िल्मों से दूरी बनानी पड़ी मगर उसी परिवार को बेहतर तरीक़े से चलाने के लिए उन्होंने फिर एक बार फ़िल्म इंडस्ट्री का रुख़ किया।

वो नौशाद साहब से मिलीं जो उन दिनों “बाबुल” फिल्म बना रहे थे लेकिन उन्होंने गाने की बजाए उमा देवी को एक हास्य भूमिका की पेशकश की और समझाया कि उनके अंदर हास्य नेचुरल है और वो गाने की बजाए हास्य में बेहतर कर पाएंगी। उमादेवी ने उनकी बात मान ली और इसी फ़िल्म से उन्हें नाम मिला – “टुनटुन” जो नौशाद साहब ने ही रखा था। मगर कहते हैं कि इस फ़िल्म में अभिनय करने के लिए टुनटुन ने नौशाद साहब के आगे एक शर्त रखी थी कि पहली फिल्म में वो
दिलीप कुमार के साथ काम करेंगी क्योंकि वो दिलीप कुमार की दीवानी थीं और फिर वैसा ही हुआ भी।

बाबुल के हिट होते हो गायिका उमा देवी ग़ायब हो गईं और टुनटुन नाम की एक हास्य अभिनेत्री का जन्म हुआ जो हिंदी फ़िल्मों की पहली हास्य अभिनेत्री कहलाईं। कुछ तो उनका डील-डौल देख कर लोग हँस पड़ते थे कुछ वो ख़ुद को इस तरह पेश करती थीं कि कोई लाख चाहे तो भी अपनी हँसी रोक नहीं पाता था। “उड़न खटोला”, “बाज़”, “आर-पार”, “राजहठ”, “उजाला”, “कोहिनूर”, “12 O’clock”, “जाली नोट”, “दिल दिया दर्द लिया”, “कश्मीर की कली”, “राजकुमार”, “अक्लमंद” से लेकर “एक बार मुस्कुरा दो”, “क़ुर्बानी”, “नमक हलाल” जैसी कितनी ही फ़िल्मों में टुनटुन ने अपनी हँसी के फ़व्वारे छोड़े। उनकी आख़िरी फिल्म थी 1988 की “एक आदमी”।

टुनटुन
टुनटुन

50-60 के दशक में टुनटुन की उपस्थिति लगभग हर फ़िल्म में ज़रुरी होती थी। हाँलाकि किरदार बहुत मज़बूत नहीं होता था मगर परदे पर उनके आते ही होंठों पर हँसी आ जाती थी। उनका इतना असर रहा कि उस समय और बाद में भी कई सालों तक टुनटुन नाम एक मोटी लड़की का पर्याय बना रहा। उनके बाद जितनी भी महिला हास्य अभिनेत्रियाँ आईं वो दिखने में लगभग उन्हीं के डील-डौल यानी मोटापे को मैच करती थीं।

ये दुखद है लेकिन हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में दशकों तक यही ट्रेंड रहा है कि अगर फ़ीमेल कॉमिक आर्टिस्ट है तो ज़रुर मोटी होगी और दर्शकों को हँसाने के लिए उनके मोटापे पर ही फ़ोकस किया जाएगा उसका मज़ाक़ बनाया जायेगा फिर चाहे वो प्रीती गांगुली रही हों या गुड्डी मारुति। पर अच्छा पहलू ये है कि अब दौर बदल रहा है और फ़ीमेल कॉमेडियन के हिस्से में एक्टिंग भी आती है और अच्छे डायलॉग्स भी। हाँलाकि टुनटुन ने हास्य अभिनेत्री के तौर पर जो कामयाबी पाई वो फिर किसी और के हिस्से नहीं आई।  

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टुनटुन ने हिंदी, उर्दू, पंजाबी की क़रीब 198 फ़िल्मों में अभिनय किया। लेकिन 80 के दशक के ख़त्म होते होते उन्होंने फ़िल्मों को अलविदा कह दिया। लेकिन हँसना-हँसाना उन्होंने कभी बंद नहीं किया क्योंकि वो उनका स्वभाव था। आपने शायद महसूस किया हो कि जिन लोगों की ज़िंदगी काफी ट्रैजिक रही होती है, उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर उतना ही ग़ज़ब का होता है। टुनटुन के साथ कुछ ऐसा ही था लेकिन लाखों को हँसाने-गुदगुदाने वाली टुनटुन 24 नवम्बर 2003 को हमेशा के लिए ख़ामोश हो गईं। लेकिन जब-जब फ़िल्मी हास्य कलाकारों का ज़िक्र होगा, ख़ासकर हास्य अभिनेत्रियों की बात होगी टुनटुन का नाम सबसे आगे होगा।

7 thoughts on “टुनटुन उर्फ़ उमा देवी – हिंदी फ़िल्मों की 1st फ़ीमेल कॉमेडियन”

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