निरुपा रॉय

निरुपा रॉय, हिंदी फ़िल्मों की वो अभिनेत्री जो माँ के रोल में लम्बे समय तक हिंदी फ़िल्मों में छाई रहीं, 60-70-80 का दशक तो बतौर माँ उन्हीं के नाम रहा। फ़िल्म “राजा और रंक” का ये मशहूर गाना “तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है, प्यारी-प्यारी है ओ माँssss” ये गाना ऑन-स्क्रीन निरुपा रॉय के लिए गाया गया था। उनकी पुण्यतिथि पर उनसे जुड़ी कुछ अनसुनी और कम सुनी बातें आपसे शेयर कर रही हूँ।

निरुपा रॉय उन फ़िल्मी माओं में से हैं जिनका चेहरा मोहरा शायद ऊपर वाले ने बनाया ही माँ के किरदार के लिए था। माँ का लाड़ प्यार दुलार गुस्सा सब उनकी आँखों और मुस्कान से छलक जाता था। हाँलाकि शुरुआत में उन्होंने बहुत सी फिल्मों में मुख्य भूमिकाएँ निभाईं मगर उस ज़माने में हीरोइन की उम्र बहुत ज़्यादा नहीं होती थी और उन्हें मजबूरन माँ, चाची, भाभी जैसी चरित्र भूमिकाओं की तरफ मुड़ना पड़ता था।

निरुपा रॉय

निरुपा रॉय हिंदी फिल्मों की सबसे लोकप्रिय और मशहूर ON-SCREEN माँ थीं, जिन्होंने देवानंद से लेकर धर्मेंद्र तक की माँ का रोल किया। विजय यानी अमिताभ बच्चन की माँ के रोल में उन्होंने सबसे ज़्यादा शोहरत पाई। पर इस माँ के फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत बतौर हेरोइन हुई थी। कई धार्मिक-पौराणिक, ऐतिहासिक और सामजिक फ़िल्मों में निरुपा रॉय ने मुख्य भूमिका निभाई थी। कई मशहूर गाने उन पर फ़िल्माए गए हैं। लेकिन बाद के दौर में निभाई गई उनकी चरित्र भूमिकाएँ इतनी स्ट्रांग थीं कि आज हम सब उन्हें मोस्ट पॉपुलर ऑन-स्क्रीन माँ के तौर पर याद करते हैं। 

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निरुपा रॉय

निरुपा रॉय की क़िस्मत उन्हें फ़िल्मों में लेकर आई

निरुपा रॉय का जन्म 4 जनवरी 1931 को गुजरात के वलसाड में हुआ था और नाम रखा गया “कांता चौहान” 14-15 साल की उम्र में उनकी शादी हुई कमल बलसारा से और वो बन गईं कोकिला बलसारा। उनके पति  मुम्बई में नौकरी करते थे तो वो भी उनके साथ मुंबई आ गईं। उनके पति को एक्टिंग का बेहद शौक़ था, एक दिन उन्होंने एक विज्ञापन देखा जिसमें गुजराती फ़िल्म के लिए कलाकारों का चयन किया जाना था। कमल जी अपनी पत्नी के साथ ऑडिशन देने गए, वो तो सेलेक्ट नहीं हुए पर बिना ऑडिशन दिए ही कोकिला बलसारा को एक्टिंग का ऑफर मिल गया।

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उस दौर में सिनेमा का क्षेत्र एक टैबू था, ख़ासकर महिलाओं के लिए तो बिल्कुल भी सही जगह नहीं मानी जाती थी इसीलिए निरुपा रॉय वो ऑफर स्वीकार नहीं करना चाहती थीं लेकिन पति के ज़िद करने पर उन्हें वो ऑफर एक्सेप्ट करना पड़ा। इस तरह गुजराती फिल्म “रणक देवी” से उनके अभिनय सफर की शुरुआत हुई और फ़िल्मी नाम मिला – निरुपा रॉय। 

आमतौर पर ये माना जाता है कि शादी के बाद हेरोइन का करियर ख़त्म, लेकिन उनका तो करियर शुरु ही शादी के बाद हुआ और कमाल की बात तो ये है कि उनके पति ने उनके फ़िल्मी सरनेम को अपनाया। जहाँ उनके पति इतने सपोर्टिव थे वहीं पिता उनके फ़िल्मों में काम करने की ख़बर से इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने मरते दम तक निरुपा रॉय से बात नहीं की, उनका चेहरा भी नहीं देखा। 

लोग उनके पैर छूकर आशीर्वाद लेते थे

निरुपा रॉय

निरुपा रॉय बतौर हेरोइन परदे पर दिखीं गुजराती-हिंदी bilingual फिल्म “गुणसुन्दरी” में जो 1948 में आई थी। उस के बाद पौराणिक फिल्मों में काम मिलना शुरु हो गया। और फिर 1950 में आई “हर हर महादेव”, जिस में निरुपा रॉय ने देवी पार्वती की भूमिका निभाई थी। इस भूमिका ने उन्हें इतनी लोकप्रियता दिलाई कि लोग उन्हें सच में देवी मानने लगे थे। लोग उनके घर आते थे ताकि उनके पैर छूकर उनका आशीर्वाद ले सकें।

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ऐसी भूमिकाओं में उन्हें लोगों का बहुत प्यार मिला जो यूँ तो अच्छा था पर हर अच्छाई का एक दूसरा पहलू भी होता है जो शायद उतना भी अच्छा नहीं होता। हुआ ये कि इस फिल्म के बाद उन पर एक तरह का टैग लग गया। यहाँ तक कि उन्हें Queen Of Mythological Films कहा जाने लगा। हाँलाकि निरुपा रॉय ने इस इमेज को बदलने के लिए कुछ स्टंट फ़िल्में कीं मगर उनकी देवी की इमेज इतनी स्ट्रांग थी कि दर्शकों को उनका स्टंट करना बिलकुल पसंद नहीं आया।

उसी दौरान निरुपा रॉय को बिमल रॉय की सामाजिक यथार्थवादी फिल्म “दो बीघा ज़मीन” में काम करने का मौक़ा मिला। इसमें एक ग़रीब किसान की मजबूर पत्नी की भूमिका में उन्होंने जो भावनात्मक अभिनय किया वो लोगों को बेहद पसंद आया और यहाँ से उनके फ़िल्मी सफर में एक सकारात्मक मोड़ आया। अब सामाजिक फिल्मों के दरवाज़े उनके लिए खुलने लगे।

निरुपा रॉय

50 के दशक के आख़िर तक आते-आते निरुपा रॉय सामाजिक फिल्मों के साथ साथ धार्मिक-ऐतिहासिक फिल्मों में भी नज़र आने लगीं। ये उनके करियर का बेहतरीन समय था जब “जनम जनम के फेरे”, “सम्राट चंद्रगुप्त”, “कवि कालिदास” और “रानी रुपमती” जैसी हिट फिल्में आई। पर इसी दौर से वो फिल्मों में माँ की भूमिकाओं में भी दिखने लगीं। हाँलाकि वो उस समय युवा थीं पर जब एक बार चरित्र भूमिकाएं मिलने लगीं तो उन्हें स्वीकार करने के अलावा कोई रास्ता भी नहीं था।

माँ की भूमिकाओं से बेपनाह शोहरत मिली

माना जाता है कि 1955 में आई “मुनीमजी” में निरुपा रॉय पहली बार हीरो की माँ की भूमिका में दिखीं। और 60 के दशक में तो ये सिलसिला लगातार चलता रहा। “छाया”, “अन्जाना”, “आया सावन झूम के”, “प्यार का मौसम” जैसी कई ऐसी फिल्में इस दशक में आईं जिनमें वो हीरो या हेरोइन की माँ बनीं। हाँलाकि इस दौर में उन्होंने “शहीद”, “मुझे जीने दो”, “राम और श्याम” जैसी फ़िल्मों में कई मज़बूत किरदार भी निभाए। पर लोकप्रियता के शिखर को छूना अभी भी बाक़ी था।

निरुपा रॉय

और ये तब हुआ जब 1975 में आई यश चोपड़ा की फिल्म “दीवार”- जिसमें निरुपा रॉय, अमिताभ बच्चन और शशि कपूर की माँ के तौर पर नज़र आईं, न सिर्फ़ नज़र आईं बल्कि डायलॉग्स में भी उस माँ का ज़िक्र कुछ ऐसे हुआ कि आज तक वो डायलॉग्स दोहराये जाते हैं। दीवार फ़िल्म का ये डायलॉग भल कौन भूल सकता है – जब शशि कपूर इमोशनल होकर गर्व से कहते हैं-“मेरे पास माँ है” फिल्म में माँ का ये किरदार हेरोइन से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण था। 

इस फ़िल्म का ऑफर पहले वैजयन्ती माला को दिया गया था पर वो माँ की भूमिका नहीं करना चाहती थीं इसीलिए ये रोल निरुपा रॉय को दिया गया। इस भूमिका के लिए उन्हें बहुत तारीफ़ तो मिली ही साथ ही परदे पर स्टार्स की माँ के रोल के लिए वो निर्माता-निर्देशकों की पहली पसंद बन गईं। ख़ासकर अमिताभ बच्चन की ज़्यादातर फिल्मों में वही पहली पसंद होतीं। “अमर अकबर एंथनी”, “सुहाग”, “मर्द”, “गिरफ्तार”,”खून पसीना” जैसी कई फ़िल्मों में ये माँ-बेटे की जोड़ी नज़र आई। अमिताभ बच्चन के साथ आख़िरी बार वो “लाल बादशाह” में नज़र आयीं थीं।

निरुपा रॉय

50 साल के अपने फ़िल्मी सफर में निरुपा रॉय ने क़रीब ढाई सौ फिल्में की। फिल्मों में उनके योगदान के लिए उन्हें 2003 में फ़िल्मफ़ेयर के लाइफटाइम अचीवमेन्ट अवार्ड से नवाज़ा गया। इसके अलावा उन्हें तीन बार फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का पुरस्कार मिला। पहली बार फिल्म “मुनीमजी ” के लिए फिर “छाया” और 1964 में फिल्म शहनाई के लिए। 
13 अकटूबर 2004 में निरुपा रॉय हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कह गईं। पर जब-जब हिंदी फिल्मों की ON-SCREEN माँ का ज़िक्र होगा उनका नाम हमेशा सबसे पहले लिया जाएगा।

 

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