कवि प्रदीप

कवि प्रदीप वो नाम जो देशभक्ति का पर्याय बन गया। उनकी पुण्यतिथि पर आइए जानें कि कैसे वो फ़िल्मी दुनिया में आए और कैसे उन्होंने राष्ट्रकवि की उपाधि पाई।

जब मैं छोटी थी तो अक्सर रेडियो पर कवि प्रदीप के फिलॉसॉफिकल सांग्स उनकी अपनी आवाज़ में सुनाई देते थे। घर में सभी बड़ों को बहुत पसंद आते थे। तब मुझे बहुत गहराई से समझ में नहीं आता था मगर बड़े होते-होते समझ में आया कि कितनी सच्चाई है उनके लिखे गीतों में। जब उनके लिखे देशभक्ति गीत सुनो तो सुनते ही देश-प्रेम की भावना जोश मारने लगती है। और अगर आपने उनके लिखे भजन सुने हों तो ये तय करना मुश्किल हो जाएगा कि उनके कौन से गीत ज़्यादा अच्छे हैं देशभक्ति गीत, दार्शनिक गीत या भजन। वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूँ की उन्होंने कई मशहूर रोमेंटिक गाने भी लिखे हैं।

कवि प्रदीप ने अपनी ज़िद के कारण स्कूल जाना भी छोड़ दिया था

राष्ट्रीय कवि की उपाधि पाने वाले महान गीतकार और कवि प्रदीप आज़ादी से पहले हिंदी फिल्मों में देश भक्ति गीत लिखने वाले पहले गीतकार थे। ऐसे कवि जिनकी कविताओं ने उस समय देशभक्तों में जोश और उत्साह का संचार किया। उनकी लेखनी जितनी ऊंचे स्तर की थी, स्वर भी उतना ही बुलंद था। कवि प्रदीप का जन्म 6 फ़रवरी 1915 में बड़नगर मध्य प्रदेश में हुआ था। उनका असली नाम था रामचंद्र नारायणजी द्विवेदी लेकिन वो अपने उपनाम प्रदीप से ही जाने गए। बचपन से ही कवि प्रदीप को अपने घर में धार्मिक और देशभक्ति का माहौल मिला। संगीत उन्होंने नहीं सीखा था पर माँ को भजन गाते सुनकर ही गाने की समझ उनमें आ गई।

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कवि प्रदीप के व्यक्तित्व में बचपन से ही एक तरह की ज़िद और स्वाभिमान था, वो ग़लत बात बर्दाश्त नहीं करते थे। एक बार स्कूल में टीचर ने किसी बात पर सज़ा दी तो फिर सबने लाख कोशिश कर ली पर वो उस स्कूल में वापस नहीं गए। तब उनके पिता ने उन्हें उनके मामा के घर रतलाम भेज दिया ये सोचकर कि शायद वहां पढाई हो जाए पर वहां भी एक दिन जब मामी ने गुस्से में कुछ कह दिया तो रेल की पटरियों के किनारे-किनारे पैदल चल कर बड़नगर लौट आए। शायद उनके उसी स्वाभिमान की झलक उनके गीतों में दिखती है।

कवि प्रदीप

लखनऊ में होने वाली गतिविधियों ने उन्हें कवि बनाया

उस समय तो उनकी पढ़ाई रुक गई मगर कुछ वक़्त के बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने का मन बनाया और पढ़ने के लिए इंदौर चले गए। इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए वो और उनके बड़े भाई कृष्ण वल्लभ द्विवेदी ने इलाहबाद का रुख़ किया। उन दिनों इलाहबाद क्रान्तिकारी गतिविधियों का बड़ा केंद्र हुआ करता था। उन गतिविधियों का कवि प्रदीप पर बहुत गहरा असर पड़ा, और शायद तभी से उनकी क़लम ने रफ़्तार पकड़ी। वहां से इंटरमीडिएट करने के बाद उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन की। इसी दौर में उनकी कविताएं देश भर में लोकप्रिय होने लगी थीं।

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कवि प्रदीप की एक कविता है “पानीपत”, वो जिस भी कवि सम्मेलन में जाते उस कविता की फ़रमाइश ज़रुर की जाती। कहते है कि महाकवि निराला भी उनकी कविताओं और उनकी आवाज़ के प्रशंसक थे। कवि प्रदीप के घरवाले चाहते थे कि वो टीचर बने मगर वो ऐसा नहीं चाहते थे। उन्हीं दिनों जब वो एक कवि सम्मेलन में भाग लेने मुंबई गए तो हिमांशु राय उनसे बहुत प्रभावित हुए और उन्हें बॉम्बे टॉकीज़ की फ़िल्मों में गीत लिखने की पेशकश दी। पहले तो प्रदीप जी ने मना कर दिया कहा कि मैं तो कवि हूँ फ़िल्म में गीत कैसे लिखुंगा लेकिन जब उन्हें कन्विंस किया गया तो वो बतौर गीतकार 200 रूपए महीने की तनख़्वाह पर बॉम्बे टॉकीज़ में काम करने लगे।

फ़िल्मों में सफलता की पारी

कवि प्रदीप की पहली फ़िल्म थी 1939 की “कंगन” जिसमें उन्होंने चार गीत लिखे। फिर 1940 में आई “बंधन” जिसके सभी गीत उन्होंने ही लिखे और वो गीत रातों रात हिट हो गए। इसका एक गीत “चल चल रे नौजवान” तो उस वक़्त बच्चे-बच्चे की ज़ुबान पर था। इसके बाद “पुनर्मिलन”, “झूला”, “नया संसार” और “अनजान” फिल्म में उनके लिखे गीत सुनने को मिले। और फिर आई हिन्दुस्तान की पहली गोल्डन जुबली “क़िस्मत” जिन दिनों ये फ़िल्म आई, उन दिनों भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी।

इस फ़िल्म का गाना “दूर हटो ऐ दुनियावालों हिंदुस्तान हमारा है” उस समय इतना लोकप्रिय हुआ कि फ़िल्म के दौरान जब-जब थिएटर में बजता तो वन्स मोर की आवाज़ें गूंजने लगती और रील को रिवाइंड करके फिर से ये गाना दिखाया जाता। उस समय देश में बहुत गर्मागर्म माहौल था, बड़े-बड़े नेता जेल जा रहे थे, इस गाने को लिखने के कारण प्रदीप जी के नाम पर भी वारंट निकल गया था।  उस समय उन्हें कुछ वक़्त के लिए छिपना पड़ा मगर उनकी क़लम नहीं रुकी।  कवि प्रदीप के गीत अपने समय में इतने लोकप्रिय हुए कि अक्सर लोग उनके गीत सुनने के लिए फ़िल्म देखने जाया करते थे।

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50 के दशक में “मशाल” और “नास्तिक” के गीतों ने धूम मचा दी थी। बाद के दौर में जिस फिल्म के गीतों ने सबसे ज़्यादा लोकप्रियता पाई वो थी “जागृति” जिसका एक-एक गीत लाजवाब है। ये गाने न सिर्फ़ देश में बल्कि पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुए। इस फ़िल्म के कुछ गीतों की नक़ल पाकिस्तानी फिल्मों में की गई। 

जिस गीत ने उन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि दिलाई

कवि प्रदीप

लेकिन जिस गीत ने कवि प्रदीप को अमर कर दिया और लाखों करोड़ों हिन्दुस्तानियों के दिलों को छुआ और झकझोरा वो था 1962 की इंडो-चाइना वॉर के दिनों में उनकी क़लम से निकला “ऐ मेरे वतन के लोगों” इस गीत की पहली लाइन उन्हें माहिम के फुटपाथ पर टहलते हुए सूझी थी उस वक़्त उनके पास लिखने के लिए कुछ नहीं था तो उन्होंने पानवाले से काग़ज़ माँगा उसने सिगरेट की एक ख़ाली डिब्बी पकड़ा दी और पेन लिया पास खड़े एक सज्जन से। इस तरह एक अमर गीत की नींव पड़ी।

सी रामचंद्र के संगीत से सजा ये गीत पहली बार 27 जनवरी 1963 को दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में लता मंगेशकर ने गाया। जिसे सुनकर वहां बैठे हर इंसान की आँखें नाम हो गईं उनमें पंडित नेहरू भी थे। इसे सुनने के बाद वो इसके रचनाकार से मिलना चाहते थे पर वहां कवि प्रदीप को नहीं बुलाया गया था। बाद में जब नेहरू जी मुंबई गए तो प्रदीप जी से मिले और फिर प्रदीप जी की आवाज़ में ये गीत सुना। इसी गीत के लिए उन्हें राष्ट्रीय कवि की उपाधि से सम्मानित किया गया।

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IMPPA अवार्ड, राष्ट्रीय एकता पुरस्कार, संगीत पीठ मुंबई का सुर सिंगार संसद पुरस्कार, संत ज्ञानेश्वर पुरस्कार, राजीव गाँधी अवार्ड, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट अवार्ड के अलावा दादा साहेब फाल्के अवार्ड से सम्मानित कवि प्रदीप के लेखन की सबसे बड़ी ख़ासियत ये है कि उन्होंने कभी क्वालिटी से समझौता नहीं किया। शायद इसीलिए 50 -60 के दशक में उन्होंने बहुत कम फ़िल्मी गीत लिखे। ज़्यादातर धार्मिक या दार्शनिक। धार्मिक फ़िल्मों में “जय संतोषी माँ” के गाने तो मिसाल बन गए। उसके अलावा “पैग़ाम” और “सम्बन्ध” के गीत भी बहुत पसंद किये गए।

अपनी होने वाली पत्नी से कही थी बड़ी अनोखी बात

कवि प्रदीप
कवि प्रदीप पत्नी और बेटियों के साथ

लेकिन उसके बाद फ़िल्मों का रूपरंग और दर्शकों का टेस्ट दोनों बदलने लगे और फिर कवि प्रदीप फ़िल्मी पटल से हट गए। वो बहुत ही स्वाभिमानी व्यक्ति थे फिल्म इंडस्ट्री में रहकर भी उसकी चमक दमक से दूर बहुत ही साधारण जीवन जीने वाले। अपने जीवन मूल्यों और संस्कारों को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। उनका विवाह हुआ था सुभद्रा बेन से, जब शादी के लिए दोनों को मिलाया गया तो प्रदीप जी ने साफ़ कह दिया था कि मैं आग हूँ पानी बन कर रहोगी तो मैं शादी करूँगा। और फिर शादी हो गई उनकी दो बेटियां हुई सरगम और मितुल।

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अपने गीतों से बहुतों को रुलाने वाले, प्रेरित करने वाले, जोश भरने वाले, चेतना का अलख जगाने वाले कवि प्रदीप 11 दिसम्बर 1998 को इस दुनिया को अलविदा कह गए और पीछे छोड़ गए अपने स्वर और लेखनी की सौग़ात। उनकी याद में कवि प्रदीप फाउंडेशन की शुरुआत की गई, जो उनकी याद में एक अवार्ड भी देता है – कवि प्रदीप सम्मान। 

स्वाभिमानी, स्पष्टवादी, जीवन से हार न मानने वाले और ज़िंदगी के सच को बिना किसी लाग लपेट के व्यक्त करने वाले कवि प्रदीप ने जहाँ करियर की बुलंदी को छुआ वहीं आख़िरी दौर में ज़िंदगी की उस कड़वी हक़ीक़त को भी महसूस किया कि डूबते हुए सितारे को कोई सलाम नहीं करता। इसकी झलक उनके लिखे गीतों में भी मिलती है।

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