विनोद खन्ना

विनोद खन्ना अपने ज़माने के बेहद हसीन और आकर्षक व्यक्तित्व वाले चर्चित अभिनेता थे। जिन्होंने नकारात्मक भूमिकाओं से शुरुआत की, खलनायकी में अपनी जगह बनाई और जब हीरो के रूप में बड़े परदे पर नज़र आए, तब भी कामयाबी की बुलन्दी तक पहुँचे। मगर उनके एक फ़ैसले ने उनका भविष्य बदल दिया। एक्सपर्ट्स के मुताबिक़ अगर वो फ़ैसला न लिया जाता तो अमिताभ बच्चन की जगह वो सदी के महानायक होते। उनके जन्मदिन के मौक़े पर आइए उन्हें थोड़ा और क़रीब से जानने की कोशिश करते हैं।

विनोद खन्ना के पिता ने कहा था कि उन्होंने अगर फ़िल्मों में काम किया तो वो उन्हें शूट कर देंगे

1946 में 6 अक्टूबर को पेशावर में जन्म हुआ विनोद खन्ना का। वहाँ उनके पिता का व्यवसाय था लेकिन देश के बँटवारे के साथ ही उनका परिवार मुम्बई आ गया जहाँ उनके पिता का दफ़्तर था। बाद में वो लोग दिल्ली आ गये। दिल्ली के स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ विनोद खन्ना ने खेलों में भी रूचि ली और थोड़ा बहुत थिएटर भी शुरू कर दिया। लेकिन जब विनोद खन्ना नौवीं क्लास में आए तो सब लोग वापस मुम्बई चले गए और उन्हें बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया गया। इसी दौरान उन्होंने फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म देखी और यहीं से उनके दिल में फिल्मों के प्रति दीवानगी पैदा हुई।

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विनोद खन्ना के पिता काफी सख़्त थे वो भी हर पिता की तरह चाहते थे कि उनका बेटा उनका कारोबार संभाले। लेकिन विनोद खन्ना उस उम्र में थे जहाँ इंसान सिर्फ अपने मन की सुनता है इसीलिए आए दिन उनकी अपने पिता के साथ बहस हो जाती और तब उनकी माँ मामला सम्भालतीं। विनोद खन्ना साइंस के स्टूडेंट थे और इंजीनियर बनना चाहते थे लेकिन उनके पिता ने बिना उनसे पूछे बिना उन्हें बताये उनका दाख़िला कॉमर्स कॉलेज में करा दिया और विनोद खन्ना कॉमर्स ग्रेजुएट हो गए। पर उस दौर में भी थिएटर का साथ बना रहा।

विनोद खन्ना

एक पार्टी के दौरान विनोद खन्ना की मुलाक़ात सुनील दत्त से हुई जो अपने भाई को लॉन्च करने के लिए एक फ़िल्म बना रहे थे “मन का मीत” वो चाहते थे कि उस फ़िल्म में विनोद खन्ना भी काम करें पर उनके पिता ने उन्हें सख़्ती से मना कर दिया, कहा कि अगर वो फिल्मों में गए तो वो उन्हें शूट कर देंगे। ऐसे में मामला संभाला उनकी माँ ने और तय ये हुआ कि उन्हें दो साल दिए जाएँगे, अगर दो साल में विनोद खन्ना अपनी जगह नहीं बना पाए तो वापस आकर अपने पिता का बिज़नेस संभालेंगे और यहाँ क़िस्मत ने उनका साथ दिया।

ख़ूबसूरत खलनायक और डैशिंग हीरो

“मन का मीत” में उनकी नकारात्मक भूमिका की काफ़ी तारीफ़ हुई और उनके पास फ़िल्मों का अम्बार लग गया। शुरुआत में छोटी नकारात्मक भूमिकाओं के बावजूद विनोद खन्ना के ख़ूबसूरत चेहरे और असरदार व्यक्तित्व में कई फ़िल्म मेकर्स ने आने वाले हीरो की झलक देखी, और उन्हें हीरो की भूमिकाएँ भी मिलने लगीं। साथ ही साथ वो एंटी हीरो, विलेन की भूमिकाएँ  भी करते रहे। “मेरा गाँव मेरा देश” का डकैत उनका काफ़ी यादगार रोल है। लेकिन इसी दौरान गीतकार गुलज़ार ने निर्देशक के रूप में अपनी पहली फ़िल्म बनाई “मेरे अपने” इस फिल्म में विनोद खन्ना जिस तरह के किरदार में नज़र आये वो ग्रे शेड लिए था लेकिन था हीरो।

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1974 में आई फ़िल्म “इम्तिहान” इसमें वो एक सुलझे हुए नेकदिल प्रोफ़ेसर की भूमिका में थे, इस भूमिका में उन्हें काफी पसंद किया गया। 70 का दशक विनोद खन्ना के लिए बहुत कामयाब फिल्में लेकर आया। इनमें से कई फिल्मों में वो अमिताभ बच्चन के साथ दिखे। “हेरा-फेरी”, “ख़ून-पसीना”, “अमर-अकबर-एंथनी”, “परवरिश”, “मुक़द्दर का सिकंदर”, ऐसा माना जाने लगा था कि जल्दी ही विनोद खन्ना अमिताभ बच्चन की नंबर 1 की कुर्सी के हक़दार हो जाएँगे। ज़्यादातर लोग दोनों को सीधे-सीधे प्रतियोगी के तौर पर देखते थे, उसी दौरान आई “क़ुर्बानी” जैसी सुपर हिट फ़िल्म। जिसने एक बार फिर साबित किया कि वो सुपरस्टार हैं।

विनोद खन्ना
अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना

उनकी चाल, उनका स्टाइल सबके लोग दीवाने थे। ये उनके करियर का पीक टाइम था कि अचानक विनोद खन्ना ने एक ऐसा फ़ैसला लिया जिससे न सिर्फ़ उनके प्रशंसक बल्कि फ़िल्म इंडस्ट्री के लोग भी हैरान रह गए। विनोद खन्ना ने अपने कामयाब करियर को छोड़ कर, फ़िल्मों से नाता तोड़ कर अचानक अध्यात्म का रुख़ कर लिया। अपने आत्म की तलाश में वो सब से दूर हो गए। अपनी पत्नी गीतांजलि से भी, जिनसे कॉलेज में मुलाक़ात के बाद प्यार हुआ शादी हुई, दो बच्चे भी थे राहुल और अक्षय मगर फिर तलाक़ हो गया।

सेक्सी सन्यासी

विनोद खन्ना
विनोद खन्ना

विनोद खन्ना सब कुछ छोड़कर रजनीश “ओशो’ के आश्रम में चले गए जो उस वक़्त अपनी विचारधारा की वजह से बहुत विवादित थे। कहा जाता है उनके आश्रम में सेक्स और ड्रग्स का इस्तेमाल खुलेआम होता था। आश्रम में उनका नाम था स्वामी विनोद भारती और वो वहाँ बाग़वानी किया करते थे। कुछ साल “ओशो” के आश्रम में गुज़ारने के बाद 1987 में विनोद खन्ना वापस मुंबई लौट आए। लेकिन वो हमेशा ओशो के शिष्य बने रहे, वो अक्सर धर्मशाला में बने “ओशो” के आश्रम में जाया करते थे।

2nd Innings

जब वो वापस लौटे तो फ़िल्म इंडस्ट्री ने उन्हें उसी प्यार से अपनाया जैसे शुरुआत में अपनाया था। 1987 में ही डिम्पल कपाड़िया के साथ उनकी पहली फ़िल्म आई “इन्साफ” इसके बाद वो एक बार फिर फ़िरोज़ ख़ान के साथ स्क्रीन पर दिखे फ़िल्म थी “दयावान” और फिर तो फ़िल्मों की लाइन लग गई। “बँटवारा”, “चाँदनी”, “रिहाई”, “लेकिन”, और “जुर्म” जैसी कई फिल्में आईं। फिर धीरे-धीरे उन्होंने मैच्योर रोल्स करने शुरू कर दिए।

अपने करियर की दूसरी पारी शुरू करने के कुछ समय बाद विनोद खन्ना की ज़िंदगी में फिर से प्यार आया और 1990 में कविता उनकी जीवन-संगिनी बन गईं और फिर विनोद खन्ना एक बेटा और एक बेटी के पिता बने। 1997 में उन्होंने अपने बेटे अक्षय खन्ना को लॉन्च करने के लिए फ़िल्म “हिमालय-पुत्र” का निर्माण किया। इसके बाद वो राजनीति से जुड़े और उसी में व्यस्त हो गए। पर जब कभी कोई अच्छी भूमिका मिली वो परदे पर नज़र आए। “दस”, “लीला”, “रिस्क”, “वांटेड”, “दबंग”, “प्लेयर्स” के अलावा 2014 की “हीरो” और 2015 की “दिलवाले” में भी उन्होंने अपना रंग जमाया।

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1975 की फ़िल्म “हाथ की सफ़ाई” के लिए विनोद खन्ना को दिया गया फ़िल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता का पुरस्कार। इसके अलावा फ़िल्मों में उनके योगदान के लिए वक़्त-वक़्त पर फ़िल्मफेयर, ज़ी सिने अवार्ड्स और कलाकार अवार्ड्स की तरफ से उन्हें “लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड” से भी नवाज़ा गया। किसी कलाकार को एक ही इमेज में क़ैद करने वाली फिल्म इंडस्ट्री में वो ऐसे कलाकार थे जो किसी ख़ास इमेज में बंध कर नहीं रहे। 

विनोद खन्ना उन हस्तियों में से थे जिन्होंने दौलत, शोहरत, कामयाबी सब कुछ पाया लेकिन जब ख़ुद को तलाशने की बारी आई तो ये सब छोड़ने में उन्होंने एक पल नहीं लगाया, ज़िंदगी को दुनिया के मुताबिक़ नहीं अपने मुताबिक़ जिया और सफल रहे। अपने आख़िरी दिनों में वो कैंसर की बीमारी से जूझ रहे थे और 27 अप्रैल 2017 को वो ये जंग हार गए और इस दुनिया को अलविदा कह गए, पीछे छोड़ गए अपनी यादें।

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