मदन मोहन

मदन मोहन वो महान संगीतकार थे जिनकी धुनें उनकी मौत के सालों बाद तक फ़िल्मों में इस्तेमाल हुई और वो इस दौर में भी उतनी ही मक़बूल हुईं। कुछ लोग जन्मजात प्रतिभाशाली होते हैं, उन्हें गॉड गिफ़्टेड कह सकते हैं। उनकी प्रतिभा के रास्ते में कितनी भी अड़चनें क्यों न आएँ वो अपनी मंज़िल तक पहुँच ही जाते हैं। वो एक डायलॉग है न कि” क़ाबिल बनो तो कामयाबी ख़ुद आपके पीछे दौड़ी चली आयेगी” और जिनमें क़ाबिलियत पहले से है उन्हें बस मेहनत लगन और जुनून के साथ उसे निखारना होता है।

ऐसे ही प्रतिभाशाली संगीतकार थे मदन मोहन जिन्होंने संगीत की बाक़ायदा कोई शिक्षा नहीं ली थी, जो कुछ सीखा देख-सुन कर सीखा। लेकिन उनकी बनाई धुनें ऐसी हैं जो किसी को भी संगीत से प्रेम करना सिखा सकती हैं।

मदन मोहन का शुरुआती जीवन 

मदन मोहन का जन्म 25 जून 1924 को बगदाद में हुआ जहाँ उनके पिता राय बहादुर चुन्नीलाल इराक़ी पुलिस में काम करते थे। उनके बचपन के पाँच साल मिडल ईस्ट में गुज़रे। दो साल की उम्र में कोई बच्चा कितना जान सकता है ! पढ़ना लिखना तो छोड़िए ठीक से समझ और बोल भी नहीं पाता मगर उस उम्र में ही वो सैकड़ों म्यूज़िक रेकॉर्ड्स में से ठीक वो रिकॉर्ड पहचान कर चुन लिया करते थे जो उनसे कहा जाता था, शायद संगीत की समझ उनमें तभी से थी।

खैर ! जब इराक़ आज़ाद हुआ तो उनके पिता भारत में अपने पैतृक शहर चकवाल लौट आए फिर काम की तलाश में उन्होंने चकवाल छोड़ दिया पर परिवार वहीं रहा। मदन मोहन ने वहां क़रीब छः साल तक पढाई की और इस अरसे में वहां सभी उनकी विलक्षण प्रतिभा के क़ायल हो गए थे। धार्मिक और सामाजिक समारोहों में उस 11 साल के बच्चे से गीत ज़रूर सुना जाता। उनके पिता को संगीत का ऐसा शौक़ नहीं था पर उनकी माँ एक कवियित्री थीं और उन्हें संगीत में बहुत रूचि थी। उनके दादा भी संगीत की समझ रखते थे, शायद यहीं से संगीत की गहरी समझ उनमें आई।

बच्चों की शिक्षा  के कारण मदन मोहन के पिता चकवाल से लाहौर आ गए और जब उन्होंने हिमांशु राय के साथ बॉम्बे टॉकीज की शुरुआत की तो पूरा परिवार मुंबई आकर बस गया। मुंबई में जहाँ वो रहते थे वहीं पास में मशहूर गायिका जद्दन बाई का घर भी था जहाँ आये दिन शास्त्रीय संगीत की महफ़िलें हुआ करती थीं। मदन मोहन चुपचाप घर में किसी को बताए बिना उन महफ़िलों में जाते और बड़े-बड़े उस्तादों को सुनते।

उन्हीं दिनों उनके पिता ने उन्हें एक रेडियो भी लाकर दिया, उस पर जो भी गाना वो सुनते और कितना भी मुश्किल राग या ताल हो वो उन धुनों को पूरी कुशलता के साथ फिर से बना लेते। शौक़ और जूनून हो तो इंसान कुछ भी कर सकता है।

मदन मोहन

करियर

मुंबई में अपने स्कूल के दिनों में वो आल इंडिया रेडियो पर बच्चों के प्रोग्राम्स में हिस्सा लिया करते थे। हाई स्कूल की पढाई पूरी होने के बाद उनके पिता ने उन्हें देहरादून के मिलिट्री स्कूल में दाखिला दिला दिया। ट्रेनिंग पूरी होने के बाद उन्होंने आर्मी ज्वाइन कर ली। दो साल उन्होंने वहाँ दिए पर उनका दिल फ़िल्मों में था। फ़ौज में भी वो अपने साथियों के मनोरंजन के लिए छोटे-छोटे प्रोग्राम्स करते रहते थे और आखिरकार 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद उन्होंने फ़ौज की नौकरी छोड़ दी और AIR लखनऊ में प्रोग्राम असिस्टेंट की नौकरी करने लगे।

लखनऊ AIR की नौकरी के दौरान मदन मोहन बड़े-बड़े संगीत के जानकारों के संपर्क में आये। अली अकबर ख़ान, वाहिद ख़ान, पंडित रामनारायण, विलायत ख़ान, बेगम अख़्तर, रोशनआरा बेगम, फ़ैयाज़ ख़ाँ जैसे उस्तादों को सुनने से न सिर्फ़ संगीत के उनके ज्ञान में इज़ाफ़ा हुआ बल्कि उम्दा मेलोडी की समझ भी बनी और संगीत के प्रति जो लगाव था वो बढ़ता चला गया। उन्होंने कुछ म्युज़िकल फ़ीचर्स बनाने शुरु किए जो सुनने वालों ने बेहद पसंद किए। लेकिन तभी उनका तबादला दिल्ली कर दिया गया, जहाँ उनके करने के लिए कोई क्रिएटिव काम नहीं था तो उन्होंने वो नौकरी छोड़ दी और मुंबई जाकर फ़िल्मों में क़िस्मत आज़माने का फैसला किया।

फ़िल्मों में संघर्ष का दौर  

उस समय तक उनके पिता और बॉम्बे टॉकीज़ हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में एक बड़ा और स्थापित नाम बन चुके थे। लेकिन वो बिल्कुल नहीं चाहते थे कि उनका बेटा फ़िल्मों में काम करे, वो इस हद तक नाराज़ थे कि उन्होंने मदन मोहन को घर में भी नहीं आने दिया, और यहीं से शुरु हुआ असली संघर्ष।

स्पोर्ट्स के दीवाने मदन मोहन एक तैराक होने के साथ-साथ एक बहुत अच्छे बॉक्सर थे। बिलियर्ड बहुत अच्छा खेलते थे और क्रिकेट के बड़े शौक़ीन थे। वो मुंबई आए थे एक्टर बनने, उनका चेहरा मोहरा भी हीरो वाला था, उन्हें बॉडी बिल्डिंग का शौक़ भी था। उन दिनों कलाकार सिंगिंग स्टार्स हुआ करते थे जो अभिनय के साथ-साथ गाया भी करते थे। उन्होंने भी ऐसा ही सोचा था पर कोई उन्हें मौक़ा देने को तैयार नहीं था। इसकी वजह राय बहादुर चुन्नी लाल का दबदबा भी हो सकता है, क्योंकि सब जानते थे कि मदन मोहन का फ़िल्मों में आना उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं था।

फिर भी “परदा” नाम की एक फ़िल्म में उन्हें हीरो चुन लिया गया था, उस फिल्म की आठ-नौ रील्स भी बन गई थीं मगर वो फ़िल्म डब्बे में बंद हो गई। 1948 की “शहीद” में मदन मोहन स्क्रीन पर नज़र आए उसके बाद 1953 की आँसू और 1954 की मुनीमजी में भी एक्टिंग की मगर वहां कोई ख़ास कामयाबी हाथ नहीं लगी। “शहीद” में उन्होंने लता मंगेशकर के साथ एक गाना भी गाया पर वो गाना फ़िल्म में शामिल नहीं किया गया। लेकिन यहीं से वो लताजी की आवाज़ के क़ायल हो गए थे।

गुज़र बसर के लिए मदन मोहन ने ऑल इंडिया रेडियो पर बतौर कैज़ुअल आर्टिस्ट सेमी क्लासिकल गीत गाने शुरू किये, फिर कुछ नाटकों में भी काम किया। पर इन सबसे गुज़ारा नहीं चल रहा था, उन्हें कई-कई दिन भूखे सोना पड़ता, रहने का भी कोई ठिकाना नहीं था। इतनी मुश्किलों के बावजूद उन्होंने कभी भी अपने पिता के नाम का इस्तेमाल नहीं किया। फिर उन्हें कुछ प्राइवेट ग़ज़ल गाने का मौक़ा मिला। कुल मिलकर कहें तो अपने इन संघर्ष के दिनों में उन्होंने हर काम आज़माया।

उसी दौर में एक दिन उनकी मुलाक़ात हुई संगीतकार S D बर्मन से जिनके वो सहायक रहे, उन्होंने ही मदन मोहन को ये सलाह दी कि तुम सिर्फ़ संगीत पर ध्यान दो और ये भविष्यवाणी भी की कि वो एक दिन बहुत बड़े संगीतकार बनेंगे और ऐसा ही हुआ भी। तीन साल के कड़े संघर्ष के बाद मदन मोहन को बतौर संगीतकार ब्रेक मिला। फ़िल्म थी 1950 में आई “आँखें” जिसका संगीत काफी मशहूर हुआ।

मदन मोहन
मदन मोहन और उनके पिता राय बहादुर चुन्नीलाल

फ़िल्म “आँखें” जब बनकर तैयार हुई तब एक अरसे बाद मदन मोहन ने अपने पिता को फिल्म देखने के लिए बुलाया। पिता आये फ़िल्म देखी और चुपचाप उठकर गाड़ी में बैठ गए। उनकी आँखों में आँसू थे, उन्हें ये पछतावा था कि सारी दुनिया के टैलेंट को पहचानने वाला आदमी अपने ही बेटे के हुनर को न पहचान सका, उस वक़्त मन के सारे मैल धुल गए थे। लेकिन इसके दो महीने बाद ही राय बहादुर चुन्नीलाल का निधन हो गया पर उनके जाने से पहले दोनों के रिश्ते सुधर गए थे और वो अपने बेटे के हुनर के क़ायल हो गए थे।

कामयाबी का सफ़र 

जब मदन मोहन कामयाबी की पहली सीढ़ी चढ़े, उनके पिता से रिश्ते सुधरे तभी एक रिश्ता और जुड़ा। घरवालों ने स्वतंत्रता सेनानी मदनलाल ढींगरा की बेटी शीला ढींगरा से उनकी शादी तय कर दी थी। उनके तीन बच्चे हुए एक बेटी और दो बेटे। निजी जीवन के साथ-साथ फ़िल्मी सफर भी आगे बढ़ा। आँखें के बाद मदहोश(1951), आशियाना(1952), रेलवे प्लेटफॉर्म (1955), भाई-भाई(1956) जैसी कई फ़िल्में आई, जिनके गाने बहुत मशहूर हुए। पर मदन मोहन जिस तरह के संगीत के लिए जाने जाते रहे उसकी शुरुआत हुई 1957 की फिल्म “देख कबीरा रोया” से जिसका एक-एक गीत सुनने लायक है और इसके बाद उस स्टाइल को सही मायनों में पूरी तरह स्थापित किया 1958 में आई फ़िल्म “अदालत” ने। इस फ़िल्म ने उन्हें फ़िल्मी ग़ज़लों के बादशाह का ख़िताब दिला दिया।

अदालत के बाद उन्होंने बहुत सी ग़ज़लें कंपोज़ कीं बल्कि हर फिल्मकार चाहता था कि उनकी फ़िल्म में कम से कम एक ग़ज़ल ज़रूर हो, और फिर मदन मोहन लगातार ऊँचाइयों को छूते चले गए। फ़िल्म कोई भी हो उनका संगीत हमेशा मुख्य आकर्षण रहा। उन्होंने जब शुरुआत की थी तो ज़्यादातर हेरोइन ओरिएन्टेड फिल्मों का दौर था और उन्हें ऐसी फ़िल्मों में संगीत देने का मौक़ा मिला। उन फिल्मों के लिए उन्होंने जिस तरह की MELODIOUS कम्पोज़िशन्स बनाई उनकी कामयाबी के कारण उन्हें ‘लेडीज कंपोजर’ भी कहा गया। जब ऐसी फ़िल्मों का दौर ख़त्म हुआ तब भी उन्हें इस तरह की फिल्में मिलती रहीं और उनके लिए लता जी का साथ भी मिलता रहा।

1960 का दशक मदन मोहन के लिए बहुत सी शोहरत और कामयाबी लेकर आया। इस दौरान उन्होंने अलग-अलग जॉनर की फिल्मों में संगीत दिया। संजोग (1961), मनमौजी (1962), अनपढ़ (1962), अकेली मत जइयो (1963), आपकी परछाईयाँ (1964), ग़ज़ल (1964), पूजा के फूल (1964), जहाँआरा (1964), सुहागन (1964), हक़ीक़त (1964), वो कौन थी (1964), नीला आकाश (1965), मेरा साया (1966), दुल्हन एक रात की (1966), नौनिहाल (1967), चिराग़ (1969), उनकी हर फ़िल्म का संगीत यादगार है।

70 के दशक की उनकी महत्वपूर्ण फ़िल्मों की बात करें तो दस्तक (1970), हीर राँझा (1970), बावर्ची (1972), हँसते ज़ख्म (1973), मौसम (1975), और 1976 में आई लैला मजनूँ। पर लैला मजनूँ की कामयाबी वो देख नहीं पाए, फ़िल्म रिलीज़ हुई थी 1976 में और मदन मोहन 1975 की 14 जुलाई को इस दुनिया से चले गए। लगातार संघर्ष ने मदन मोहन को अंदर से कहीं तोड़ दिया था, उन्होंने बहुत ज़्यादा शराब पीना शुरु कर दिया था जिसके कारण उनका लिवर ख़राब हो गया, और लिवर सिरोसिस से ही उनकी मौत हुई। 

पुरस्कार

ये बहुत ही ट्रेजिक है कि इंडस्ट्री में कितनी ही ऐसी क़ाबिल हस्तियाँ हुईं जिन्हें दर्शकों का प्यार और सम्मान तो मिला कामयाबी भी मिली मगर पुरस्कार नहीं मिले। यूँ देखा जाए तो अच्छे फ़नकार को किसी अवार्ड की ज़रुरत नहीं होती, उसका अवार्ड तो लोगों का प्यार ही होता है पर कभी-कभी अवार्ड्स हौसलाअफ़ज़ाई करते हैं, जो क्रिएटिव लोगों के लिए ज़रुरी भी होता है। मुझे ये जान कर बेहद हैरानी हुई थी, शायद आपको भी होगी कि बेहतर से बेहतरीन गाने बनाने वाले मदन मोहन को अपने जीवनकाल में सिर्फ़ एक बार अवॉर्ड दिया गया। 

मदन मोहन

 

वो एकलौती फ़िल्म थी 1970 में आई “दस्तक” जिसके लिए उन्हें नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया। वो तो ये अवार्ड लेने जाना ही नहीं चाहते थे, पर फिल्म के हीरो संजीव कुमार ने किसी तरह उन्हें राज़ी किया। संजीव कुमार को भी इस फ़िल्म के लिए सम्मानित किया जा रहा था तो उन्होंने कहा कि “हम दोनों एक जैसा सूट पहन कर चलेंगे”। कोई कहे न कहे पर तकलीफ़ तो होती है ख़ासकर जब आप किसी चीज़ के हक़दार हों और आपको आपका हक़ न दिया जाए। 

दुनिया ने मदन मोहन के हुनर को पहचाना तो मगर देर से उनके हुनर को असली सम्मान उनके जाने के बाद मिला, जो कि मुझे लगता है किसी भी फनकार के साथ ज़्यादती है। मदन मोहन का संगीत कितना फ़्रेश, कितना आगे का था ये आप इस बात से समझ सकते हैं कि उनकी मौत के दशकों बाद जब “वीर ज़ारा” फ़िल्म में उनकी बनाई धुनें इस्तेमाल की गईं तो कहीं से नहीं लगा कि वो धुनें तीस-पैंतीस साल पुरानी हैं। और वो किस क़दर हिट रही ये सब ही जानते हैं।

जीनियस मदन मोहन 

मदन मोहन जीनियस थे, और धुनें बनाने का उनका स्टाइल भी एकदम अलग था। रात को सोते समय, गाड़ी चलाते समय, खाना खाते हुए, टहलते हुए—– कभी भी कोई धुन उनके दिमाग़ में आती वो उसी समय उसे कॉपी में लिख देते। मदन मोहन बहुत संवेदनशील व्यक्ति थे जो उनके म्यूज़िक को सुन कर पता चलता है। म्यूजिक के अलावा खेलों में उनकी बहुत दिलचस्पी थी और कुकिंग का भी बहुत शौक़ था।

म्यूज़िक स्टाइल 

मदन मोहन के कई ऐसे गाने हैं जिनमें हर अन्तरे का संगीत बिलकुल अलग है ,जैसे फ़िल्म हीर-राँझा का – “ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं “, या फिर नौनिहाल की वो लम्बी कविता “मेरी आवाज़ सुनो प्यार का राज़ सुनो” ये कविता एक ही मीटर में है पर मदन मोहन के संगीत ने इसमें इतने वैरिएशंस डाल दिए हैं कि लगता ही नहीं कि वो एक कविता है, आज भी उसे सुनकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हक़ीक़त का वो गाना – “मैं सोचकर उसके दर से उठा था कि वो रोक लेगी मना लेगी मुझको” इस गाने में बहुत कम संगीत है सिर्फ़ वॉयलिन बज रहा है लेकिन वो गाना आज भी सरसरी सी पैदा कर देता है, रुला देता है। 

गीतकारों में मदन मोहन ने राजेंद्र कृष्ण, राजा मेहदी अली ख़ान और कैफ़ी आज़मी के साथ बहुत काम किया। जब वो गाना तैयार करते थे तभी ये तय हो जाता था कि उस गीत को कौन गाएगा। चाहे उस वक़्त वो गायक लोकप्रियता के पैमाने पर पूरा उतरता हो या नहीं। जब “जहाँआरा” के गीतों की धुन बनाई तो सबके कहने के बावजूद उन्होंने वो गाने रफ़ी साहब से न गवा कर तलत महमूद से गवाए। ऐसे ही 70 के दशक में जब किशोर कुमार का ख़ुमार सब पर चढ़ा हुआ था। तब उन्होंने “लैला- मजनूं” के गाने रफ़ी साहब से गवाए , जहाँ उनके गीतों में मन्ना दा की आवाज़ फिट होती थी वहाँ उन्होंने उनसे ही वो गाने गवाए।   

हँसते ज़ख्म फ़िल्म के सभी गाने एक से बढ़कर एक हैं लेकिन ये गाना – “तुम जो मिल गए हो तो ये लगता है कि जहाँ मिल गया” कैफ़ी आज़मी के बोलों का जादू और रफ़ी साहब की आवाज़ की गहराई तो है ही मगर वैसा संगीत न होता तो क्या ये गाना इतना असर डाल पाता ? बारिश की आवाज़, टैक्सी का फ़ील और हर अंतरे की बिलकुल अलग धुन, ये कमाल सिर्फ़ मदन मोहन कर सकते थे।

1970 में आई हीर राँझा पूरी तरह एक प्रयोगात्मक फ़िल्म थी जिसमें डायलॉग्स भी तुकबन्दी में थे। ऐसी फ़िल्म में संगीत देना कोई आसान काम नहीं था पर मदन मोहन की धुनों ने न सिर्फ़ फ़िल्म के साथ इन्साफ किया बल्कि एक ऐसा गाना बनाया जो शायद उससे पहले कभी नहीं बना था, वो शायद पहला ऐसा गाना होगा जो फुसफुसाने वाले अंदाज़ में गाया गया।  – “मेरी दुनिया में तुम आईं क्या-क्या अपने साथ लिए”   

ट्रिविया 

“वो कौन थी” फिल्म का लता मंगेशकर का गाया और राजा मेहदी अली ख़ान का लिखा एक मशहूर गाना है जो पिछले कुछ सालों में फिर से बहुत मक़बूल हो गया है – “लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो, शायद फिर इस जनम में मुलाक़ात हो न हो “

जब मदन मोहन ने पहली बार ये धुन राज खोसला को सुनाई तो उन्होंने इसे रिजेक्ट कर दिया था। पर मदन मोहन इतनी प्यारी धुन को यूँ ही नहीं छोड़ना चाहते थे तो उन्होंने एक कोशिश और की। और इस बार मनोज कुमार जो फ़िल्म के हीरो थे उन्हें भी बुला लिया। जब उन्होंने धुन सुनाई तो मनोज कुमार को बेहद पसंद आई और इस बार राज खोसला ने भी बहुत तारीफ़ की। और जब मदन जी ने कहा कि पिछली बार तो आपने इसे रिजेक्ट कर दिया था तो उन्होंने ये माना कि शायद तब वो किसी और मूड में होंगे। अच्छा हुआ मदन मोहन ने दोबारा सिटींग रखी वर्ना हम इतने अच्छे गाने से महरुम रह जाते। 

1966 में आई फ़िल्म “मेरा साया” इस फ़िल्म का टाइटल पहले “साया” था पर जब ये गाना बना “तू जहाँ-जहाँ चलेगा मेरा साया साथ होगा” सबको ये इतना पसंद आया कि फ़िल्म का टाइटल बदल कर मेरा साया कर दिया गया।

ग्लैमर की दुनिया में रहते हुए भी उसकी चकाचौंध का असर उनपर नहीं पड़ा, वो एक पारिवारिक इंसान थे जिसे अपने रिश्तों की क़द्र थी। वो अपने बच्चों को पूरा वक़्त देते थे अक्सर परिवार के साथ पिकनिक पर जाया करते थे। उनका एक छोटा भाई था जिसकी ट्रैन के सफर के दौरान हत्या कर दी गई थी। उस हादसे ने उन पर बहुत गहरा असर डाला था। उनकी बहन का नाम था शांति महेंद्रू जिनकी दो बेटियाँ हुई – अनु और अंजू। वही अंजू महेन्द्रू जो फ़िल्मों में पहले वैम्प या डांसर के रोल में दिखाई देती थीं और बाद में दादी नानी के किरदार में।

मदन मोहन के बारे में इतना कुछ है लिखने को कि एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। मगर यहाँ ये संभव नहीं है तो आज की पोस्ट में इतना ही। बस मैं चाहती थी कि उनके जन्मदिन पर उनके बारे में कुछ ज़रुर लिखूं कुछ ऐसी बातें जो शायद आपको न पता हों।

5 thoughts on “मदन मोहन-हिंदी फ़िल्मी ग़ज़लों के बेताज बादशाह”
  1. […] मदन मोहन का संगीत कैफ़ी आज़मी के बोल, कलाकारों और चेतन आनंद के डेडिकेशन ने इस फिल्म को इतना रीयलिस्टिक बना दिया कि जहाँ-जहाँ ये फ़िल्म दिखाई गई लोगों की आँखों से आँसू थामे नहीं। आजकल युद्ध पर आधारित जो फ़िल्में बनती हैं उनका बेस “हक़ीक़त” ही है। इसे दूसरी सर्वश्रेष्ठ फीचर फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया। लद्दाख में जहाँ इस फिल्म की शूटिंग की गई थी वहां की एक हिल का नाम बाद में “हक़ीक़त हिल” ही रख दिया गया, इससे बड़ा सम्मान और क्या होगा ? […]

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