जयदेव

जयदेव एक ऐसे संगीतकार जिन्हें ऊपर वाले ने उन्हें टैलेंट तो भरपूर दिया पर 10% क़िस्मत देना भूल गया। वर्ना ऐसा कैसे मुमकिन है कि हम दोनों, मुझे जीने दो, रेशमा और शेरा, और गमन जैसी फ़िल्मों में क्लासिक म्यूज़िक देने वाले संगीतकार की तरफ़ फ़िल्ममेकर्स का ध्यान न जाए ! कैसे मुमकिन है कि इतने मधुर गीत रचने वाला संगीतकार, न अपना घर_ बना_ सका, न बसा सका!

जयदेव वर्मा वैसे तो पंजाब से थे पर उन का जन्म नैरोबी में हुआ था जहाँ उनके पिता रेलवे में काम करते थे। जयदेव की माँ की मौत उनके बचपन में ही हो गई थी इसलिए उनकी परवरिश लुधियाना में उनकी बुआ के घर पर ही हुई। उनके परिवार में दूर-दूर तक किसी का फ़िल्मों से नाता नहीं था मगर क़िस्मत को उन्हें वहाँ तक पहुँचाना था तो सारे हालात वैसे ही बनते चले गए। जब जयदेव अपनी टीन ऐज में थे उन्होंने जहाँआरा कज्जन का गाया एक गाना सुना और उसे सुनने के बाद वो म्यूज़िक की तरफ़ खिंचते चले गए। और फिर उन्होंने उस्ताद बरक़त राय से संगीत की शिक्षा लेनी शुरु कर दी।

जब जयदेव फ़िल्मों में काम करने के लिए मुंबई भाग गए थे

फिर एक दिन लाहौर के एक थिएटर में अलीबाबा फ़िल्म देखी तो फ़िल्मों का नशा हो गया। ये नशा इतना बढ़ा कि भागकर मुंबई आ गए। मुंबई में जयदेव ने वाडिया मूवीटोन की वामन अवतार, वीर भारत, हंटरवाली मिस फ्रंटियर मेल जैसी क़रीब आठ फ़िल्मों में उन्होंने बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट काम किया। लेकिन इसी बीच जब उन्हें अपने फूफाजी की मौत की ख़बर मिली तो वो वापस लुधियाना गए। क़रीब साल भर बाद जब वापस आए तो कृष्णराव चोंकर से म्यूज़िक सीखना शुरु किया। फिर उनके अगले कुछ साल उनका मुंबई आना-जाना लगा रहा इस दौरान उनके पिता की मौत हो गई, भाई-बहन की शादी हुई।

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और फिर वो अलाउद्दीन ख़ाँ साहब से संगीत सीखने के इरादे से अल्मोड़ा चले गए। वहाँ वो उदय शंकर के कल्चरल सेंटर में रहे, मगर जब सेंटर बंद हो गया तो अलाउद्दीन ख़ाँ साहब ने उन्हें एक लेटर देकर अपने बेटे अली अकबर ख़ाँ के पास लखनऊ भेज दिया जो उस समय ऑल इंडिया रेडियो पर काम करते थे, और बाद में सरोद की दुनिया के सरताज बने। अली अकबर ख़ाँ ने जब जोधपुर दरबार में शाही संगीतकार की पदवी पाई तो वो जयदेव को भी अपने साथ ले गए। जोधपुर महाराज की मौत के बाद अली अकबर ख़ाँ के साथ जयदेव भी मुंबई आ गए।

जयदेव
जयदेव और अली अकबर ख़ाँ

जयदेव को बतौर संगीतकार पहला मौक़ा दिया चेतन आनंद ने

देवानंद की नवकेतन फ़िल्म्स की शुरूआती कुछ फ़िल्मों में अली अकबर ख़ाँ ने ही म्यूज़िक दिया था उन दिनों जयदेव ने उनके सहायक के तौर पर काम किया था। और जब नवकेतन में एस डी बर्मन की एंट्री हुई तब जयदेव बतौर सहायक उनके साथ जुड़ गए। जयदेव को बतौर संगीतकार पहला ब्रेक दिया देवानंद के भाई और मशहूर निर्माता-निर्देशक चेतन आनंद ने।  फ़िल्म थी जोरू का भाई, इसके बाद समुंदरी डाकू और अंजलि जैसी फिल्में आईं। लेकिन जब 1961 में हम दोनों आई तो इस फिल्म के गानों ने सबका ध्यान खींचा। इस फिल्म का हरेक गाना एक अनमोल नगीना है। ये गाना तो जैसे देवानंद की पहचान ही बन गया था – “मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया”

बदक़िस्मती पहली ही सुपरहिट फ़िल्म से साथ रही

इसी फिल्म में एक भजन भी है “अल्लाह तेरो नाम” जिसे लता मंगेशकर ने गाया है। पहले सोचा गया था कि इसे एम एस सुबुलक्ष्मी से गवा लिया जाए मगर फाइनली लता जी के नाम पर सहमति बनी। ये उस समय की बात है जब लता मंगेशकर और एस डी बर्मन के बीच तनातनी चल रही थी और एस डी बर्मन के सहायक होने के नाते जयदेव भी इसकी लपेट में आ गए थे। इसलिए लता मंगेशकर ने गाने से साफ़ इंकार कर दिया। मगर जब उन्हें ये कहा गया कि अगर वो ये गाना नहीं गाएंगी तो जयदेव को हटा दिया जाएगा तो वो इंकार नहीं कर सकीं क्योंकि वो जयदेव का नुकसान नहीं चाहती थीं।

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कहा ये भी जाता है कि कई लोगों ने लता मंगेशकर से इस कम्पोजीशन की तारीफ़ की थी इसलिए उन्होंने ये भजन गाया। “हम दोनों” जयदेव की पहली सुपरहिट मूवी थी संगीत की तारीफ़ भी हर किसी ने की मगर यही नवकेतन के साथ उनकी आख़िरी फ़िल्म रही। कहते हैं गाइड के लिए पहले जयदेव को ही चुना गया था मगर फिर जाने क्या हुआ उनकी जगह एस डी बर्मन आ गए। और ऐसा उनके साथ बार बार हुआ। जब उन्होंने मुज़फ्फर अली की फ़िल्म गमन का संगीत दिया जो बहुत ही मक़बूल हुआ तो मुज़फ़्फ़र अली ने अपने ड्रीम प्रोजेक्ट उमरावजान के लिए जयदेव को ही साइन किया था मगर फिर उन्हें हटाकर ख़ैयाम को ले लिए गया।

जयदेव
जयदेव और मुज़फ्फर अली

इसके पीछे कई बातें कही जाती हैं जिनमें से एक के मुताबिक़ जयदेव ने बीमार होते हुए भी फ़िल्म के संगीत पर काम करना शुरु कर दिया था, 10 गाने कंपोज़ भी कर दिए थे, मगर बात बिगड़ी गायिका को लेकर। जयदेव का कहना था कि कहानी की authenticity को बनाए रखने के लिए गायिका भी वैसी ही होनी चाहिए और उन्होंने ठुमरी गायिका मधुरानी का नाम सामने रखा। मगर मुज़फ़्फ़र अली फ़िल्म की कमर्शियल सक्सेस के लिए किसी मशहूर गायिका से वो गाने गवाना चाहते थे और बस यही आकर बात ख़त्म हो गई।

साहिर लुधियानवी के साथ हुई अनबन

“हम दोनों” के गीत लिखे थे साहिर लुधियानवी ने, ये दोनों फिर से साथ आये तो आई सुनील दत्त की क्लासिक “मुझे जीने दो” इस फ़िल्म के लिए जयदेव ने फोक बेस्ड क्लासिकल बेस्ड क्लासिक गाने बनाए। लेकिन उस दौरान जयदेव और साहिर लुधियानवी के बीच एक तरह की कोल्ड वॉर छिड़ गई। दरअस्ल साहिर मानते थे कि गीतकार के बग़ैर संगीतकार कुछ नहीं है, वो ऐसा सिर्फ़ मानते ही नहीं थे सबके सामने कहते भी थे।

जयदेव
जयदेव और साहिर लुधियानवी

जयदेव को उनकी ये बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने अपनी तरफ़ से एक प्रस्ताव रखा कि कोई एक फ़िल्म बनाए जिसमें वो साहिर के लिखे तीन गानों की धुन बनाएंगे और तीन गाने साहिर उनकी धुनों पर लिखें तो फ़ैसला हो जाएगा। ऐसा तो नहीं हुआ मगर बात बढ़ी और फिर दोनों ने कभी एक दूसरे के साथ काम नहीं किया। 

बेहतरीन कम्पोज़िशन्स के लिए मिले तीन राष्ट्रीय पुरस्कार

लेकिन सुनील दत्त ने जयदेव के साथ फिर से काम किया और तब आई “रेशमा और शेरा”। क्या गाने हैं इस फिल्म के! हाँ मुश्किल हैं मगर गुनगुनाने को जी चाहता है और यही है जयदेव के संगीत की ख़ासियत। मुश्किल क्लासिकल बेस होते हुए भी उनकी मधुरता कम नहीं होती मेलोडी ऐसी है कि जी चाहता है दिन भर सुनते रहे। उनके ऐसे गानों के लिए उन्हें कभी फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड तो नहीं मिला मगर तीन बार नेशनल अवॉर्ड ज़रूर मिला। पहली बार “रेशमा और शेरा” के लिए, दूसरी बार “गमन” के लिए और तीसरी बार “अनकही” के लिए।  

मुझे सोच कर अचरज होता है कि “रेशमा और शेरा” के बाद भी उनके पास बड़ी फ़िल्मों के ऑफर्स नहीं आए। उन्हें लो बजट फिल्में ही मिलीं जिनमें से कई के प्रिंट भी अवेलेबल नहीं हैं। पर थैंक गॉड कि ऑडियो रिकार्ड्स हैं जिनकी वजह से प्रेम पर्वत का ये प्यारा सा गाना हम सुन पाते हैं – “ये दिल और उनकी निगाहों के साए”

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जयदेव बहुत ही टैलेंटेड थे और ये बात फ़िल्ममेकर्स जानते तो थे पर मानने वाले कुछ ही थे। तभी तो जब मदन मोहन की मौत की वजह से “लैला मजनू” का संगीत अधूरा रह गया तो उसे पूरा करने की ज़िम्मेदारी जयदेव को सौंपी गई। इतना ही नहीं जब “अलाप” जैसी क्लासिकल सिंगिंग पर आधारित फ़िल्म बनाई जा रही थी तो हर तरफ़ उनकी ढूंढ़ मची हुई थी। जानते हैं क्यों ? क्योंकि उन दिनों उनके पास कोई काम ही नहीं था तो वो पंजाब चले गए थे। वो तो उन्होंने किसी वजह से एन सी सिप्पी को फ़ोन किया तो पता चला कि किसी को उनकी ज़रुरत है। 

जयदेव ने साहित्यिक रचनाओं को सुरों में पिरोने का साहसिक काम भी किया

“किनारे-किनारे”, “दो बूँद पानी”, “मान जाइए”, “प्रेम पर्वत”, “परिणय”, “घरोंदा”, “दूरियाँ”, “गमन”, “तुम्हारे लिए”, “अनकही” जैसी कितनी ही फ़िल्मों के गाने हम आज भी सुनते है, ख़ासकर अपने अकेलेपन में क्योंकि उनका संगीत एक मरहम की तरह काम करता है। आपने हरिवंशराय बच्चन की लिखी “मधुशाला” तो सुनी होगी मन्ना डे की आवाज़ में। बहुत मशहूर है ये एल्बम और सिर्फ यही नहीं महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद जैसे छायावादी कवियों की रचनाओं को सुरों में पिरोने का साहसिक काम भी जयदेव ने ही किया।

उनकी कंपोज़ की हुई जिगर मुरादाबादी, ग़ालिब और फ़िराक़ गोरखपुरी की ग़ज़लों को आशा भोसले की आवाज़ में सुनिए आपकी शाम सुखद हो जायेगी। उनकी आख़िरी रिकॉर्डिंग थी फ़िराक़ गोरखपुरी की ग़ज़लों की, जब वो ख़त्म हुई तो उन्होंने कहा था “जिस काम को मैं सालों से पूरा करना चाहता था वो आज पूरा हो गया अब मौत बेशक मुझे ले जाए”। और मौत ने जैसे उनकी ये बात सुन ली। इसके एक हफ़्ते बाद ही वो इस दुनिया से रुख़सत हो गए। 

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जयदेव ताउम्र कुँवारे रहे, उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में इसकी वजह बताई कि उन्हें नहीं लगता था कि वो काम और परिवार की ज़िम्मेदारियों के बीच बैलेंस बना पाते इसलिए उन्होंने शादी नहीं की। पर जो इंसान हमेशा पेइंग गेस्ट बन कर रहा हो, जिसके पास कभी काम हो कभी न हो ऐसे में वो भला एक परिवार का ख़र्च कैसे उठाते? उनके आख़िरी वक़्त में तो मकान मालकिन ने उस घर से भी उन्हें निकाल दिया था। तब महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें एक फ़्लैट दिया था मगर वहाँ वो रह नहीं सके।

उन्हें अस्थमा की बीमारी थी, जनवरी 1987 में अचानक उन्हें ख़ून की उलटी हुई, उन्हें हॉस्पिटल ले जाया गया  और तीन दिन बाद 6 जनवरी को उन्होंने हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं। जयदेव दुनिया से भले ही चले गए मगर वो मरे नहीं। फ़नकार कभी मरा नहीं करते अपने फ़न के ज़रिए अमर हो जाते हैं। 

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