गुरुदत्त

गुरुदत्त बेजोड़ अभिनेता और लाजवाब निर्देशक होने के साथ-साथ एक बेहद संवेदनशील इंसान थे जो ताउम्र दर्द में जिए और दर्द में ही इस दुनिया से रुख़सत हो गए। उनकी पुण्यततिथि के अवसर पर उनके उस दर्द को समझने की कोशिश करते हैं जिसके ज़रिए उन्होंने अपनी फ़िल्मों में समाज के उन पहलुओं को छुआ, जिन्हें उस समय नज़रअंदाज़ कर दिया जाता था। उन्होंने नाकामी की परवाह किए बग़ैर बेहतरीन फ़िल्में बनाने का जोखिम उठाया और फ़िल्म जगत के लगभग हर दाव को जीता, पर ख़ुद ज़िंदगी की बाज़ी हार गए।

10 अक्टूबर 1964, वो दिन जब गुरुदत्त की मौत की ख़बर दुनिया को लगी। उस वक़्त उनकी मौत को लेकर हज़ार बातें बनी, आज तक हो रही हैं। उनकी मौत को आत्महत्या माना जाता है। पर उनके बेटे अरुण दत्त के मुताबिक़ उनके पिता को स्लीपिंग डिसऑर्डर था वो अक्सर नींद की गोलियाँ लेते थे और शराब भी पिया करते थे। इन दोनों का कॉम्बिनेशन जानलेवा होता है, इसीलिए अरुण अपने पिता की मौत को एक दुर्घटना मानते हैं। उनका कहना है कि गुरुदत्त की अगले दिन की कई मीटिंग्स तय थीं अगर उन्हें आत्महत्या करनी होती तो वो पूरा दिन क्यों प्लान करते ?

गुरुदत्त
गुरुदत्त और वहीदा रहमान फ़िल्म चौदहवीं का चाँद के एक दृश्य में

उनकी मौत या आत्महत्या के लिए कुछ लोगों ने वहीदा रहमान को ज़िम्मेदार माना जिनसे उनका अफ़ेयर काफ़ी समय पहले ही ख़त्म हो गया था, तो कुछ लोगों ने उनकी पत्नी गीता दत्त को जो उन दिनों बच्चों के साथ उनसे अलग रह रही थीं। हाँलाकि कहा ये भी जाता है कि उन्होंने पहले भी दो बार आत्महत्या करने की असफल कोशिश की थी और तीसरी बार की कोशिश में वो मौत के आग़ोश में चले गए। आत्महत्या या दुर्घटना ये सच तो सिर्फ़ गुरुदत्त जानते थे, लेकिन ये भी सच है कि एक डिप्रेस्ड इंसान की मनःस्थिति को समझना आसान नहीं होता। और गुरुदत्त तो वैसे भी बहुत कम बोलते थे अपनी भावनाओं को खुलकर ज़ाहिर नहीं करते थे।

गुरुदत्त का असली नाम था वसंत कुमार पादुकोण

9 जुलाई 1925 को मैसूर में गुरुदत्त का जन्म हुआ, लेकिन शुरुआती शिक्षा हुई कोलकाता में। उनके पिता शिवशंकर राव पादुकोण पहले एक हेडमास्टर थे लेकिन बाद में बैंक में काम करने लगे थे। उनकी माँ वासंती पादुकोण स्कूल में पढ़ाती थीं और शॉर्ट स्टोरीज़ लिखा करती थीं, साथ ही बांग्ला उपन्यासों का कन्नड़ में अनुवाद किया करती थीं। गुरुदत्त के जन्म के समय उनके मामा के कहने पर उनकी माँ ने उनका नाम रखा था ‘वसंत कुमार’। पर बचपन में हुए कुछ बुरे अनुभवों के कारण उनका नाम बदल कर रखा गया ‘गुरुदत्त पादुकोण’, लेकिन उन्होंने कभी भी पादुकोण अपने नाम के साथ नहीं लगाया।

गुरुदत्त

आर्थिक कठिनाइयों से जूझते हुए परिवार में रोज़-रोज़ के संघर्ष का असर यूँ भी गुरुदत्त के मन पर बराबर पड़ रहा था। उस पर उनके मामा के परिवार से दुश्मनी, और गुरुदत्त के सात महीने के भाई शशिधर की मृत्यु ने उन पर बहुत गहरा असर डाला, इसीलिए उनका नाम बदला गया था। पर दत्त होने और अच्छी बांग्ला बोलने के कारण अक्सर लोग उन्हें बंगाली समझ लेते थे। पढ़ाई के बाद वो उदय शंकर के अल्मोड़ा स्थित परफार्मिंग आर्ट ग्रुप से जुड़ गए, वहाँ उन्होंने डांस, ड्रामा और संगीत सीखा।

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द्वितीय विश्व युद्ध के कारण जब सेंटर बंद हो गया तो गुरुदत्त ने कोलकाता में टेलीफ़ोन ऑपरेटर की नौकरी कर ली। पर जल्दी ही नौकरी छोड़कर अपने परिवार के पास मुंबई आ गए। उनके एक अंकल ने उन्हें ‘प्रभात फ़िल्म कंपनी‘ में नौकरी दिलाई जहाँ उन्हें दो अच्छे दोस्त मिले रहमान और देवानंद। गुरुदत्त ने 1944 की फ़िल्म “चाँद” में श्रीकृष्ण का छोटा सा रोल अदा किया। 1945 की फ़िल्म “लाखारानी” में वो अभिनेता के साथ-साथ सहायक निर्देशक भी रहे। यहीं से देवानंद के साथ दोस्ती की शुरुआत हुई, साथ ही एक वादा किया गया कि जो पहले कामयाब होगा वो दूसरे को मौक़ा देगा।

देवानंद ने दिया निर्देशन का पहला मौक़ा

“प्रभात” के बाद गुरुदत्त ने पहले “फेमस स्टूडियो” फिर “बॉम्बे टॉकीज़” के साथ काम किया। फिर जब थोड़ा वक़्त मिला तो अंग्रेज़ी में लेखन शुरु किया, एक अंग्रेज़ी पत्रिका के लिए लघुकथाएँ भी लिखीं। दरअस्ल घर के हालात और अनुभवों ने उन्हें बहुत संवेदनशील बना दिया था। निर्देशक के रुप में गुरुदत्त की पहली फिल्म थी 1951 की “बाज़ी” जिसका निर्माण देवानंद ने किया था। “बाज़ी” एक सुपरहिट फ़िल्म थी जिसने जुर्म पर आधारित फ़िल्मों की कड़ी में एक नया ट्रेंड बनाया। इसी फ़िल्म के एक गीत की रिकॉर्डिंग पर गुरुदत्त की मुलाक़ात गीता रॉय से हुई, जो 26 मई 1953 को विवाह में बदल गई।

गुरुदत्त
गुरुदत्त, गीता दत्त और बच्चों के साथ

“बाज़ी” के बाद आई “जाल” और “बाज़” जैसी फ़िल्मों को प्रोत्साहन तो मिला लेकिन बड़ी कामयाबी नहीं। हाँ, बाज़ में गुरुदत्त हीरो के रुप में नज़र आए और फिर निर्देशन के साथ-साथ अभिनय का सिलसिला भी शुरु हो गया। और फिर उन्होंने कुछ जीनियस लोगों को खोज कर एक टीम बनाई, जिसमें सिनेमेटोग्राफ़र V K मूर्ति, लेखक-निर्देशक अबरार अल्वी और कॉमेडियन जॉनी वॉकर जैसे कई लोग शामिल थे। 1954 में आई फ़िल्म “आर-पार” जिसने गुरुदत्त को निर्देशक के रुप में पूरी तरह स्थापित कर दिया था।

गुरुदत्त प्यासा जैसी क्लासिक बना कर अमर हो गए

“आर-पार”  के बाद आई “मि एंड मिसेज 55” ये वो दौर था जब गुरुदत्त ने हल्की-फुल्की, सस्पेंसफुल, रोमेंटिक फ़िल्मों का ही निर्देशन किया था। लेकिन इसके बाद उन्होंने एक गंभीर फ़िल्म बनाई “प्यासा”, इस फ़िल्म की कहानी उन्होंने इसके निर्माण से 12 साल पहले लिखी थी, तब इसका टाइटल था “कशमकश”। ये एक ऐसे ग़रीब और संवेदनशील शायर की कहानी है जो अपने सभ्य समाज के मखौटों को अच्छी तरह पहचानता है, इसीलिए उसकी शायरी में तल्ख़ी के साथ-साथ क्रांति भी है। उस शायर को गुरुदत्त ने परदे पर जिया और इसमें उनका बख़ूबी साथ दिया साहिर लुधियानवी की शायरी ने।

गुरुदत्त

जब गुरुदत्त प्यासा बना रहे थे तो काफ़ी लोगों ने उन्हें कहा था कि ये कहानी जोखिम भरी है, शायद न चले पर उन्होंने फ़िल्म बनाई और उसे लोगों का प्यार भी मिला और इतना मिला कि आज भी गुरुदत्त का नाम आते ही प्यासा याद आती है। प्यासा में पहले दिलीप कुमार और मधुबाला को मेन लीड में लेने के लिए सोचा गया था। पर जब दोनों ही ये फ़िल्म नहीं कर पाए तो गुरुदत्त ने ख़ुद नायक की भूमिका की और मधुबाला की जगह चुना गया माला सिन्हा को।

गुरुदत्त

“प्यासा” के बाद गुरुदत्त ने फ़िल्मी दुनिया के सच को परदे पर उतारा, भारत की पहली सिनेमास्कोप फ़िल्म “काग़ज़ के फूल” बनाकर, इसे उनकी ज़िंदगी की कहानी भी कहा जाता है। “प्यासा” की तरह ये भी एक मास्टरपीस है जिसे समीक्षकों की सराहना तो मिली लेकिन कामयाबी नहीं मिल पाई। इसके बाद उन्होंने निर्देशन से अपना हाथ खींच लिया। फ़िल्म निर्माण और अभिनय तो करते रहे लेकिन निर्देशक के रूप में उनका नाम फिर कभी फ़िल्मी परदे पर नहीं दिखा। वैसे काफ़ी लोगों का मानना है कि ‘साहब बीबी और ग़ुलाम” का निर्देशन उन्होंने ही किया था सिर्फ़ नाम अबरार अल्वी का था लेकिन इस बात में कितनी सच्चाई है ये कहना मुश्किल है।

गुरुदत्त कभी अपने काम से संतुष्ट नहीं होते थे

ये सच है कि बतौर फिल्मकार गुरुदत्त ने कई नए कीर्तिमान रचे। रोमांस दर्शाने के लिए Light & Shade का जो जादुई प्रभाव उनकी फ़िल्मों में देखने को मिलता है वो कमाल का है। हाँलाकि वो उस ज़माने में दिखाना बिलकुल भी आसान नहीं था पर एक बार किसी आईडिया से वो कन्विंस हो गए तो पूरी टीम मिलकर उसे साकार कर देती थी। “काग़ज़ के फूल” का गाना “वक़्त ने किया क्या हँसीं सितम” इसी Light & Shade इफ़ेक्ट के लिए जाना जाता है। इस गाने में स्टूडियो की छत से छनकर आती सूरज की किरणों के बीच से धूल के कण नज़र आते हैं।

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गुरुदत्त ने अपने कैमरामैन V K मूर्ति जो अंत तक गुरुदत्त के साथ जुड़े रहे। उन से पूछा कि ये इफ़ेक्ट दे सकते हैं तो उन्होंने कहा कि एक निश्चित समय पर शूट करने पर ये इफ़ेक्ट मिल जाएगा पर गुरुदत्त ने कहा कि ये इफ़ेक्ट तुम्हें पैदा करना होगा, हम यहाँ 10 दिन शूट करेंगे जब भी तुम्हें हल मिल जाए उसी दिन हम इस सीन को शूट कर लेंगे। V K मूर्ति ने बहुत सोचने पर हल निकला और फिर दो बड़े-बड़े आईनो की मदद से ये लाजवाब इफ़ेक्ट क्रिएट किया गया।

गुरुदत्त

क्लोज़-अप शॉट्स को भी गुरुदत्त ने एक अलग तरीक़े से फ़िल्माया। उनका मानना था कि 80 प्रतिशत अभिनय आँखों से किया जाता है और 20 प्रतिशत शरीर से। इसीलिए इस तरह के शॉट्स उनकी फ़िल्मों की जान हैं। फिल्मों के विषय और नई तकनीक ने उनकी फ़िल्मों को मास्टरपीस बनाया और उन्हें एक कामयाब फ़िल्मकार। वो एक परफेक्शनिस्ट थे और परफेक्शन के लिए सोच की गहराई, गंभीरता और ज़बरदस्त मेहनत की ज़रूरत होती है और ये सब खूबियाँ उनमें थीं। इसीलिए उनकी फिल्में रचनात्मक और आर्टिस्टिक होने के साथ-साथ व्यवसायिक रुप से भी सफल होती थीं।

फ़िल्म मेकिंग उनके लिए ऑब्सेशन था, वो बहुत ही महत्वकांक्षी व्यक्ति थे। एक निर्देशक के रुप में वो अपनी किसी फ़िल्म से संतुष्ट नहीं थे, उन्हें हमेशा यही लगता था कि कहीं कुछ कमी रह गई। गुरुदत्त वैसे वो बहुत हँसमुख थे सेट पर कर्मचारियों के साथ बैठकर खाना खाते थे, पर जब काम की बात आती थी तो बेहद गंभीर हो जाते थे, सेट पर ज़रा सा भी डिस्टर्बेंस उन्हें पसंद नहीं आता था। पर कलाकारों से काम लेते समय वो कभी भी अपना संयम नहीं खोते थे, चाहे जितने रीटेक्स हों, कितनी ही ग़लतियाँ हों। शायद इसीलिए उनकी फ़िल्मों का एक-एक शॉट इतना शानदार होता था।

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गुरुदत्त की ख़ासियत थी कि अगर अपनी फ़िल्म से वो संतुष्ट नहीं होते थे तो बिना किसी बात की परवाह किए या तो उसे बंद कर देते थे या रीशूट करते थे। प्यासा की भी चार रील्स बन चुकी थीं, एडिट भी हो चुकी थीं पर वो ख़ुश नहीं थे, उन्हें कुछ कमी लग रही थी, इसलिए उन्होंने उन चारों रील्स को नष्ट कर दिया और फिर से फ़िल्म शूट की। उनके इसी परफ़ेक्शन की वजह से उनकी कई फ़िल्में अधूरी रह गईं और हमेशा हमेशा के लिए डिब्बे में बंद हो गईं। लेकिन उन्होंने गुणवत्ता से कभी समझौता नहीं किया।

ऐसा देखा गया है कि जो लोग दुनिया भर में शोहरत और एक मक़ाम हासिल करते हैं, जिनकी गिनती जीनियस और बुद्धिजीवियों में होती है, उनका निजी जीवन त्रासदियों से भरा होता है। गुरुदत्त एक महान फ़िल्मकार थे, बेजोड़ अभिनेता थे। उनके क़रीबियों के मुताबिक़ वो बेहद सादा और अच्छे इंसान थे, फिर भी उनके निजी जीवन में हमेशा उथल-पुथल बनी रही। पत्नी गीता दत्त से दिन-ब-दिन बढ़ती मानसिक दूरी और वहीदा रहमान की तरफ़ बढ़ते आकर्षण ने उनके पारिवारिक जीवन में हलचल मचा दी थी। दुनिया की असलियत, बदलते चेहरों और अपने अस्तित्व को लेकर उठे अनगिनत सवाल, उन्हें उस मक़ाम पर ले गए कि उन्हें जीवन के प्रति कोई मोह ही नहीं रह गया था।

गुरुदत्त

कुछ एक्सपर्ट्स का मानना ये भी है कि व्यवसायिक दृष्टि से उन्होंने बहुत जल्दी बहुत कुछ पा लिया था। “प्यासा” और “काग़ज़ के फूल” जैसी क्लासिक बनाने के बाद कुछ और बेहतर पाने को था ही नहीं। शायद इसीलिए उनकी ज़िंदगी में एक ख़ालीपन आ गया था और वही एक कारण रहा उनके डिप्रेशन में जाने का। वजह कुछ भी हो पर गुरुदत्त के जाने से एक महान और रचनात्मक फिल्मकार हम सबसे जुदा हो गया। उनका काम कितना महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके सिनेमा को फ्रांस के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया, उन पर कई किताबें भी लिखी जा चुकी हैं।

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जब गुरुदत्त की मौत हुई उस समय वो दो फ़िल्मों पर काम कर रहे थे। “लव एंड गॉड” और “बहारें फिर भी आएँगी”, जो उनकी होम प्रोडक्शन थी। उनकी मौत के बाद दोनों फिल्में दूसरे अभिनेताओं के साथ पूरी करके रिलीज़ की गईं। “बाज़”, “आर-पार”, “Mr & Mrs 55”, “CID”, “प्यासा”, “काग़ज़ के फूल”, “चौदहवीं का चाँद” जैसी फिल्में ‘गुरुदत्त फिल्म्स’ के बेनर तले बनी, इनमें से पाँच का निर्देशन भी गुरुदत्त का था। CID को छोड़कर सभी के नायक भी वही थे, इनके अलावा अभिनेता के रुप में “12 O’clock”, “सौतेला भाई”, “बहुरानी”, “भरोसा”, “सुहागन” और “साँझ और सवेरा” जो बतौर अभिनेता उनकी आख़िरी फ़िल्म थी।

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