आर्देशिर ईरानी

भारत की पहली सवाक फ़िल्म “आलमआरा” बनाने वाले आर्देशिर ईरानी को भारत की कई “फर्स्ट” का श्रेय दिया जाता है।

भारतीय टॉकीज के जनक आर्देशिर ईरानी ने पहली भारतीय टॉकी के अलावा पहली भारतीय इंग्लिश फ़िल्म “नूरजहाँ” बनाई।पहली पर्शियन साउंड फ़िल्म “THE (लोर) LOR GIRL” भी उन्होंने ही बनाई जो कि 1934 में रिलीज़ हुई और बहुत कामयाब हुई। इसके बाद उन्होंने भारत की पहली कलर फ़िल्म “किसान कन्या” भी बनाई जो 1937 में रिलीज़ हुई थी ।

आर्देशिर ईरानी का प्रारंभिक जीवन

आर्देशिर ईरानी का जन्म 5 दिसंबर 1886 में पुणे के एक पारसी परिवार में हुआ था। J J स्कूल ( जहाँ गरीब पारसी परिवारों के और अनाथ बच्चे पढ़ते थे ) से उन्होंने मैट्रिक तक की पढाई की, थोड़े समय के लिए टीचर भी रहे और केरोसिन इंस्पेक्टर भी। ऐसा माना जाता है कि फिर वो अपने पिता का फोनोग्राफ़िक इक्विपमेंट्स और म्यूज़िकल इंस्ट्रूमेंट्स का बिज़नेस सँभालने लगे। लेकिन नरेंद्र पंजवानी जिन्होंने अर्देशिर ईरानी की जीवनी लिखी है उनके मुताबिक़ अर्देशिर ईरानी बहुत ग़रीब थे इसीलिए उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी। गुज़र-बसर के लिए उन्होंने कई तरह के काम किये। 

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वक़्त के साथ आर्देशिर ईरानी का झुकाव सिनेमा की तरफ़ हुआ और फिर उन्होंने बिजनेसमैन और एक्सीबिटर अब्दुलअली इसूफली के साथ साझेदारी में “टेंट सिनेमा” में फ़िल्में दिखाना शुरु किया। यूनिवर्सल स्टूडियो अर्देशिर ईरानी का आइडियल स्टूडियो था और वो अपने इम्पीरियल स्टूडियो को भी उसी मक़ाम पर ले जाना चाहते थे इसीलिए उन्होंने भारतीय भाषाओं के अलावा कई विदेशी भाषाओं में भी फ़िल्में बनाईं ताकि उनका स्टूडियो दुनिया भर में पहचाना जाए। 1914 में उन्होंने अब्दुलअली इसुफ़ली के साथ मिलकर बॉम्बे का अलेक्सेंडर थिएटर ख़रीदा जिसमें वो हिंदी और अंग्रेजी की फ़िल्में दिखाते थे।

1920 में अर्देशिर ईरानी ने अपना पहला स्टूडियो स्थापित किया – “स्टार फ़िल्म्स लिमिटेड” जिसमें उनके साथ पार्टनर थे – न्यूयॉर्क स्कूल ऑफ़ फ़ोटोग्राफ़ी से स्नातक करके लौटे भोगीलाल दवे, जो पहले दादा साहब फाल्के की हिंदुस्तान फ़िल्म कंपनी से जुड़े थे। स्टार फ़िल्म्स लिमिटेड की पहली फ़िल्म “वीर अभिमन्यु” आई 1922 में, इस साइलेंट फ़िल्म से अर्देशिर ईरानी ने फ़िल्म निर्देशन में क़दम रखा। स्टार फिल्म्स के बैनर तले क़रीब 17 कामयाब फ़िल्में आईं जिनके निर्देशक थे अर्देशिर ईरानी और कैमरामैन थे भोगीलाल दवे। फिर दोनों अलग हो गए और अर्देशिर ईरानी ने पहले मैजेस्टिक फ़िल्म कंपनी बनाई, इसके बाद  1926 में उन्होंने इम्पीरियल फ़िल्म कंपनी की स्थापना की जिसके बैनर तले बनी पहली बोलती फ़िल्म “आलमआरा” ।

आर्देशिर ईरानी

सिनेमा में साउंड एरा

अगर विश्व सिनेमा की बात करें तो फिल्मों में साउंड एरा को कमर्शियली लांच किया वॉर्नर ब्रदर्स ने। उनकी फ़िल्म Don Juan में पहली बार synchronized म्यूजिक स्कोर और साउंड इफेक्ट्स सुनाई दिए। ये 1926 की बात है, उससे पहले फ़िल्में बिना किसी synchronized साउंड के बना करती थीं। इसके एक साल बाद ही वॉर्नर ब्रदर्स ने “The Jazz Singer” बनाई जिसमें म्यूजिक के साथ-साथ synchronized स्पीच भी थी। इसमें तीन गाने थे, उस समय ये फ़िल्म एक सेंसेशन बन गई थी और ज़ाहिर है ये बहुत कामयाब हुई। इसे दुनिया की पहली talkie कह सकते हैं, पर ये पूरी तरह सवाक फ़िल्म नहीं थी।

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इसकी सफलता से प्रोत्साहित होकर ही वॉर्नर ब्रदर्स ने बनाई पूरी तरह बोलती फ़िल्म यानी फर्स्ट ऑल टॉकिंग (First All Talking) फ़ीचर फ़िल्म “LIGHTS OF NEW YORK” जो जुलाई 1928 में रिलीज़ हुई। मोशन पिक्चर और रिकार्डेड साउंड को जोड़ने का आईडिया न सिर्फ़ लोगों को पसंद आया बल्कि दुनिया भर के फ़िल्मकारों के लिए प्रेरणा बन गया।जब वर्ल्ड सिनेमा को आवाज़ मिली, उस समय तक हिंदुस्तानी सिनेमा बे-आवाज़ था। लेकिन यहाँ साइलेंट फिल्में अपनी मज़बूत जगह बना चुकी थीं। भारत में आवाज़ का जो शुरुआती प्रयोग किया गया उसमें साउंड को पिक्चर के साथ synchronized किया गया। 1927 में पेश किए गए इस प्रोग्राम को “फ़ोनोफ़िल्म” कहा गया।

भारत में बोलती फ़िल्मों के निर्माण में मदन थिएटर्स का एक बड़ा रोल रहा है। क्योंकि ऐसी फ़िल्मों के प्रदर्शन के लिए के लिए ख़ास तरह के साउंड सिस्टम्स से लैस थिएटर्स की ज़रुरत थी और मदन थिएटर्स ने इस ज़रुरत को पूरा किया। 1929 में मदन थिएटर्स ने पहली बार एक विदेशी बोलती फ़िल्म- “मेलोडी ऑफ़ लव” का हिंदुस्तान में प्रदर्शन किया। कोलकाता का एल्फिंस्टोन पिक्चर पैलेस पहला ऐसा थिएटर बना, जिसमें पर्मानेंट साउंड इक्विपमेंट थे। इसके बाद यही फिल्म मुंबई के साथ-साथ पूरे भारत में दिखाई गई।

मदन थिएटर्स के मालिक J F MADAN ने न्यूयॉर्क में “The Jazz Singer” देखी थी और लोगों का उत्साह देखकर वो समझ गए थे कि आने वाला वक़्त सिनेमा में साउंड का है। कोलकाता के टॉलीगंज में उनका एक साउंड प्रूफ़ स्टूडियो बन रहा था।  जब वो हॉलीवुड गए तो नई-नई आई साउंड तकनीक के बारे में और भी बारीक़ी से जाना-समझा। अपने स्टूडियो के लिए उन्होंने बहुत से विदेशी तकनीशियन्स की सेवाएं ली और साउंड इक्विपमेंट्स भी हॉलीवुड से मंगवाए।

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मदन थिएटर्स ने RCA फ़ोटोफोन साउंड सिस्टम पर कई छोटे-छोटे आइटम्स रिकॉर्ड किए। जिनमें नाटकों के दृश्य, सांग, डांस नंबर्स, स्किट्स वगैरह शामिल थे। इन्हें 4 फ़रवरी 1931 को रिलीज़ किया। लेकिन तब तक भारत की पहली टॉकीज़ रिलीज़ नहीं हुई थी लेकिन उसे बनाने में तीन कम्पनियाँ जी जान से जुटी थीं। एक तो खुद मदन थिएटर्स दूसरी कृष्णा कंपनी और तीसरा इम्पीरियल मूवीटोन।  और जैसा की सब जानते हैं बाज़ी मारी इम्पीरियल थिएटर के आर्देशिर ईरानी ने-जिन्होंने हिंदुस्तान को दी पहली बोलती फ़िल्म – “आलमआरा”।

पहली सवाक फ़िल्म आलमआरा के निर्माण की कहानी 

आर्देशिर ईरानी की बनाई हुई आलमआरा पहली फुल लेंथ इंडियन टॉकी (Full Length Indian Talkie) है। दरअस्ल आलमआरा  पारसी इम्पीरियल थिएटरिकल कंपनी का नाटक था जो पहले ही काफ़ी कामयाब हो चुका था, उसी कहानी पर ये फ़िल्म बनाई गई। आलमआरा की भूमिका में दिखीं “ज़ुबैदा” और शहज़ादे के रुप में मास्टर विट्ठल जिन्हें भारत का डगलस फेयरबैंक्स कहा जाता है। आलमआरा में हीरो के रोल के लिए पहले, महबूब ख़ान को चुना गया था मगर बाद में सोचा गया कि पहली बोलती फ़िल्म में किसी बड़े स्टार को लेना ज़्यादा सही होगा और इसीलिए साइलेंट फ़िल्मों के स्टंट स्टार मास्टर विट्ठल इस फ़िल्म के हीरो बने।

आर्देशिर ईरानी

ज़ुबैदा हेरोइन और पृथ्वीराज कपूर ने इस फ़िल्म में विलेन जनरल आदिल ख़ान की भूमिका निभाई थी। इनके अलावा इस फ़िल्म में L V प्रसाद ने भी अभिनय किया था जो बाद में साउथ के मूवी मुग़ल कहलाए। उस समय ये फ़िल्म क़रीब 40,000 रूपए में बनकर तैयार हुई थी। और इसका इतना क्रेज़ था कि 4 आने की टिकट 5 रुपए में बिकी थी। इस तरह कह सकते हैं कि ब्लैक में टिकट मिलने की शुरुआत आलमआरा से ही हुई थी।

आर्देशिर ईरानी ने टेनर रेकॉर्डर के ज़रिए कुछ हल्के-फुल्के प्रयोग किए और आलमआरा की शूटिंग शुरु कर दी। आप इमेजिन कर सकते हैं कि उस फ़िल्म को बनाने में कितनी मुश्किलें पेश आई होंगी। पहली बार आर्देशिर ईरानी और उनकी टीम साउंड इक्विपमेंट्स को हैंडल कर रहे थे, किसी को ठीक से पता नहीं था कि स्टूडियो के अंदर इको साउंड से कैसे निपटना है ? और उस ज़माने में कोई साउंड प्रूफ़ स्टुडिओज़ तो थे नहीं, उनके स्टूडियो के पास रेलवे ट्रैक भी था। ट्रैन की आवाज़ अक्सर बाधा बनती थी, तो उतने वक़्त के लिए शूटिंग रोकनी पड़ती थी।

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आर्देशिर ईरानी इनडोर शूट करते थे या रात में शूट करते थे। उस समय के कैमरा भी बहुत आवाज़ किया करते थे, उन आवाज़ों में डायलॉग्स दब जाते, कभी कम्बल लपेट कर उस आवाज़ को कम करने की कोशिश की जाती, कभी कोई और तरीक़ा ढूंढा जाता मगर कुछ भी ज़्यादा कारगर साबित नहीं हो रहा था। फिर जब आउटडोर में शूट किया तो साउंड क्वालिटी थोड़ी बेहतर हुई, पर सब कुछ तो आउटडोर में शूट नहीं किया जा सकता था। माइक्रोफ़ोन्स को भी कैमरा की नज़रों से दूर छुपा के रखना पड़ता था, लेकिन तब कलाकारों को अपने डायलॉग्स थोड़े लाउड बोलने पड़ते थे।

आख़िरकार सारी मुश्किलों से पार पाते हुए आर्देशिर ईरानी ने फिल्म पूरी की और 14 मार्च 1931 को “आलमआरा” मुंबई के मैजेस्टिक सिनेमा में रिलीज़ की गई। फ़िल्म पहले ही इतनी मशहूर हो गई थी कि रिलीज़ के दिन सुबह से ही मैजेस्टिक सिनेमा के बाहर लोग इकठ्ठा होना शुरु हो गए और भीड़ इतनी बढ़ गई कि फ़िल्मकारों के लिए भी अंदर जाना मुश्किल हो गया था। पूरा ट्रैफिक जाम हो गया और हालत इतने बिगड़ गए कि पुलिस को आकर भीड़ को कण्ट्रोल करना पड़ा। लेकिन फ़िल्म सुपरहिट रही और अगले 8 हफ्तों तक हॉउसफुल गई।

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फ़िल्म में कई गीत और डांस सीक्वेंस डाले गए। फ़िल्म और उसका संगीत दोनों की बेहद कामयाब हुए। इसका गीत “दे दे ख़ुदा के नाम पर” ये भारतीय सिनेमा का पहला गीत बन गया। इसे गाने वाले थे वज़ीर मोहम्मद ख़ान। इस तरह प्लेबैक न सही पर पहले गायक-अभिनेता का ख़िताब उन्हीं के नाम होना चाहिए। कुल मिला कर फ़िल्म में 7 गाने थे और फ़िल्म का संगीत दिया फ़िरोज़शाह एम मिस्त्री और बी ईरानी ने, इस तरह ये भारतीय सिनेमा के पहले संगीतकार हुए। पर दुर्भाग्यवश आज इस फ़िल्म का एक भी प्रिंट अवेलेबल नहीं है।

सिनेमा में आवाज़ आने के फायदे तो थे मगर आलमआरा के बाद फ़िल्में बनाना एक महंगा सौदा हो गया था। एक आवाज़ के आ जाने से काफ़ी कुछ बदल गया था जिससे बहुत से लोगों का नुक़सान भी हुआ। जो लोग हिंदी-उर्दू ठीक से नहीं बोल पाते थे उन कलाकारों के लिए काम नहीं रहा, जिनकी आवाज़ गाने लायक़ नहीं थी उनके लिए भी रास्ते कम हो रहे थे। और वो सभी थिएटर्स जो साउंड टेक्नीक के साथ खुद को बदल नहीं पाए धीरे धीरे बंद हो गए।

आर्देशिर ईरानी
आर्देशिर ईरानी और उनकी फिल्मों के पोस्टर्स

अर्देशिर ईरानी की अन्य उपलब्धियां

8 साल में क़रीब 120 टॉकी बनाने वाले आर्देशिर ईरानी शायद दुनिया के अकेले ऐसे फ़िल्ममेकर होंगे जिन्होंने सबसे ज़्यादा भाषाओं में फिल्में बनाईं। आर्देशिर ईरानी ने बंगाली, मराठी, तमिल, उर्दू जैसी भारतीय भाषाओं के अलावा इंग्लिश, पर्शियन, बर्मीज़, इंडोनेशियन और पश्तो में भी फिल्में बनाई। बर्मा इंडोनेशिया और ईरान में टॉकीज़ लॉंच करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। इम्पीरियल फ़िल्म के बैनर तले आर्देशिर ईरानी ने 62 फिल्में बनाई। जिनमें पहली भारतीय इंग्लिश फ़िल्म “नूरजहाँ” के अलावा पहली भारतीय कलर फ़िल्म किसान कन्या भी  शामिल है।

आर्देशिर ईरानी पहले फिल्ममेकर थे जिन्होंने सिनेकलर टेक्नोलॉजी पर आधारित कलर लेबोरेट्री स्थापित की। उनकी फिल्म कंपनी इम्पीरियल फ़िल्म्स को कई नई प्रतिभाओं को मौक़ा देने का श्रेय भी जाता है। जिनमें पृथ्वीराज कपूर और महबूब ख़ान जैसे नाम शामिल हैं, उन की आखिरी फ़िल्म थी ‘पुजारी’ जो 1945 में आई थी।

प्रोडूसर, डायरेक्टर, राइटर, सिनेमेटोग्राफ़र और फ़िल्म डिस्ट्रीब्यूटर आर्देशिर ईरानी 14 अक्टूबर 1969 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। सिने इतिहास में भारतीय टॉकी के जनक के रुप में आर्देशिर ईरानी और तकनीकी स्तर पर कई  प्रयोग करने के लिए उनकी इम्पीरियल फ़िल्म कंपनी हमेशा याद किए जाते रहेंगे।

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